नई दिल्ली। भारत रत्न और संविधान निर्माता बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर की देश आज 126वीं जयंती मना रहा है। आजादी भारत में पहली बार यह देखने को मिल रहा है कि आज सभी राजनीतिक पार्टियां महात्मा गांधी के बाद इसी शख्स की राजनीतिक विरासत पर अपना कब्जा जमाने की होड़ में लगी हुई है। चाहे पीएम नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा हो या फिर कांग्रेस या फिर बसपा या अन्य दल, हर कोई बाबा साहेब की विचारधारा के करीब जाने को लेकर हर कोई एक दूसरे से आगे निकलने में जुटे हैं। बाबा साहेब सदैव गरीब, शोषित, पिछड़े और दलितों के उत्थान में लगे रहे। यही वजह रही कि उन्हें दलितों के मसीहा के तौर पर पूजा जाता है। बेहद साधारण से परिवार में जन्में बाबा साहेब की असाधारण प्रतिभा का फल रहा कि समूचे विश्व में आज उन्हें नॉलेज ऑफ सिंबल के तौर पर पहचाना जाता है। बाबा साहेब का जन्म 14 अप्रेल 1891 में मध्यप्रदेश के दलित परिवार में हुआ। ऊंची डिग्री लेने के उपरांत भी बाबा साहेब को देश में जीवनभर अस्पृश्यता का दंश झेलना पड़ा। इसका असर उन्होंने बचपन में स्कूली शिक्षा लेने के दौरान देखा। जब वे विदेश से उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद 1923 में लौटे तो देश के हालात ज्यादा नहीं बदले थे। यही स्थिति शोषित, गरीब दलितों को बराबरी का हक दिलाना उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन गया। बाबा साहेब ने कई किताबें लिखी और हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों पर करारा प्रहार किया। इस दरम्यान उनके साथ कुछ घटनाएं भी घटी, जिसके चलते अगड़ी जातियों का तगड़ा विरोध उन्हें झेलना पड़ा। जिसमें महाड़ सत्याग्रह प्रमुख था। महाड़ में ऊंची जाति के लोग दलितों को तय किए गए तालाबों और कुओं से पानी नहीं लेने देते थे। इस मामले में बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल ने 1923 में प्रस्ताव पास किया, जिसमें कहा गया कि तालाबों का इस्तेमाल हर कोई कर सकता है। लेकिन ऊंची जाति के हिंदूओं ने इसका विरोध किया तो बाबा साहेब ने आंदोलन छेड़ दिया। उन्होंने हजारों दलितों के साथ 20 मार्च 1927 को महाड़ के सार्वजनिक चवदार तालाब से पानी पीया। इस घटना के बाद आज तक 20 मार्च का दिन सामाजिक सशक्तिकरण दिवस के रुप में मनाया जाता है। इसी तरह मंदिरों में दलितों को प्रवेश दिलाने के लिए आंदोलन छेड़ा। उस दौर में मंदिरों में दलितों के प्रवेश पर सख्त पाबंदी थी। इस पर अम्बेडकर ने 2 मार्च 1930 को नासिक के प्रसिद्ध कालाराम मंदिर के बाहर ऐतिहासिक प्रदर्शन किया तो दलितों को मंदिरों में प्रवेश का अधिकार मिल गया। वे जिस ताकत से दलितों को उनका हक दिलाने में जुटे थे, उसी मुस्तैदी से उनके विरोधी भी उनके विरुद्ध एकजुट हो गए। जब उन्हें लगा कि इस संघर्ष के बाद भी वे जातिप्रथा और अस्पृश्यता को दूर नहीं कर पा रहे है तो ऐतिहासिक फैसला लेते हुए कहा कि मैं पैदा हिंदू के तौर पर जरुर हुआ, लेकिन हिंदू के तौर पर मरुंगा नहीं। बाबा साहेब का 1950 के दशक में बौद्धधर्म की ओर झुकाव होने लगा। वे बौद्ध सम्मेलन में भाग लेने के लिए सीलोन (श्रीलंका) गए। 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने अपने लाखों समर्थकों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। साथ ही 22 प्रतिज्ञाएं लेते हुए हिंदू धर्म के साथ उसकी पूजा पद्धति का त्याग कर दिया। धर्म परिवर्तन को लेकर यह घटना समूचे विश्व को आश्चर्य में डालने वाली थी।

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