लेखक – यदुनाथ राम ‘सेउटाÓ

भारत जहां हर दिन त्योहार मनाया जाता है,

जहां हर दिन त्योहार मनाया जाता है,
जगती का देश अकेला भारत।।
वसुंधरा के कोने-कोने में यह पवज़्, किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। इस पृथ्वी पर भारत एक ऐसा अनोखा देश है, जहां वषज़् के 365 दिन त्योहार ही होते हैं। इन्हीं त्योहारों में होली एक महान पवज़् है। यह प्रेम और शक्ति का पवज़् है। भाईचारा व विश्व बंधुत्व का पवज़् है।

होली की अबीर का लाल रंग प्रेम और त्याग का प्रतीक है। विभिन्न रंग के पुष्पों का एक में गूंथ जाना ही होली है। धनी, निधज़्न, छोटा-बड़ा, कृषक, मजदूर सभी हषज़् में विभोर हो उठते हैं। यह पवज़् फाल्गुन, पूणिज़्मा और चैत्र प्रतिपदा को धूमधाम से मनाया जाता है।

प्रकृति तन-मन से प्रियतम की होली।
इसीलिए भारत के जन-मन में होली।।

इसमें प्रेम और बलिदान का समपज़्ण भरा हुआ है। होली का नाम होली मनाने के विषय में अनेक मत हैं। पौराणिक कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप आयोज़्ं का विरोधी था। उनके पांव जमने नहीं देता चाहता था। उसका पुत्र प्रह्लाद ईश्वर-भक्त था। हिरण्यकश्यप उसे मार देना चाहता था। उसकी बहन होलिका को वरदान था कि वह आग में जल नहीं सकती। उसने प्रह्लाद को गोद में लेकर जलाना चाहा, उल्टा प्रभाव हुआ। होलिका जलकर मर गई। इसी खुशी में होली मनाई जाने लगी। बच्चे गा उठे।

होली फुआ जल गई, घर की बलाय गई।।

दूसरे मतानुसार भारत गांवों का देश है। इस समय रबी की फसल खेतों में लहलहा उठती है। वसंत का आगमन हो जाता है। प्रकृति रानी नयनों के कोरों से वसंत को निमंत्रण देकर बुला लेती है। प्रकृति के अंग-अंग में सौंदयज़् और मादकता व्याप जाती है।

वसंत की दूतिका कोकिला की मधुर वाणी मन मोह लेती है। कृषक फसल को देख खुशी से झूम उठते है। मन मयूर नृत्य करने लगता है। वह प्रेमस्वरूप एक दूसरों को लाल रंग, अबीर लगाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करता है। मन से मन जब मिलता है, वहीं होली का रंग जमता है। संसार के समस्त स्वरूपों तथा कायज़्कलापों का आधार मानव है। यह धरा मानव की कमनीय केलिभूमि है।

मानव उत्साह और स्फूतिज़् के लिए विविध वस्तुओं का सहारा लेता है जिसमें प्रकृति एक है। मानव का प्रकृति के साथ भाईचारे का संबंध बहुत पुराना है। प्रारंभ से ही यह प्रकृति का पुजारी रहा है। कमनीय उपवन के विविध रंग-?बिरंगे पुष्पों की शोभा निरखता हुआ है, वह कभी नहीं अघाता। रसाल की रसभरी मृदुल मंजरी का रसपान करने वाली कोमल कंठ कोयल की कूक सुनकर उसके हृदय में आनंद का प्रवाह बह उठता है।

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