जयपुर। संपूणज़् भारत में आदिवासियों द्वारा मनाई जाने वाली होली या रंग-पंचमी सबसे अलग होती है। आम शहरी लोगों से कहीं ज्यादा मद-मस्त होकर भारतीय आदिवासी जनता होली का भरपूर मजा लेती है। भारतीय आदिवासियों का प्रमुख त्योहार होली ही होता है।

देखने में आया है कि शहर में तो होली का त्योहार रंगों की बजाय खूनी होली में बदल गया है। ये हुड़दंग सामाजिक सौहाद्रज़् बिगाडऩे वाली होती है, जबकि होली का त्योहार प्रेम इजहार, मिलन और सामाजिक एकता का प्रतीक होने के साथ-साथ हमें यह भी संदेश देता है कि लोगों को व्यक्ति पूजा को छोड़कर उस एक परम शक्ति के आगे ही झुकना चाहिए। आदिवासियों में इस तरह की हुड़दंग नहीं होती। मध्य प्रदेश के भील होली को भगोरिया कहते हैं। भगोरिया के समय धार, झाबुआ, खरगोन आदि आदिवासी क्षेत्रों के हाट-बाजार मेले का रूप ले लेते हैं और हर तरफ बिखरा नजर आता है होली और प्यार का रंग। रंग-बिरंगे वस्त्रों में आदिवासी जनता बहुत ही खूबसूरत नजर आती है। भगोरिया स्वयंवर प्रथा का भीली स्वरूप है। भगोरिया हाट-मेले में युवक-युवती बेहद सजधज कर अपने भावी जीवनसाथी को ढूँढने आते हैं। इनमें आपसी रजामंदी जाहिर करने का तरीका भी बेहद निराला होता है।
राजस्थान में रहने वाले भील आदिवासियों के लिए होली विशेष होती है। वयस्कर होते लड़कों को इस दिन अपना मनपसंद जीवनसाथी चुनने की छूट होती है। इस दिन वो आम की मंजरियों, टेसू के फूल और गेहूँ की बालियों की पूजा करते हैं और नए जीवन की शुरुआत के लिए प्राथज़्ना करते हैं। राजस्थान के सलंबूर कस्बे में आदिवासी ‘गेरÓ खेल कर होली मनाते हैं। उदयपुर से 70 कि. मि. दूर स्थित इस कस्बे के भील और मीणा युवक एक ‘गेलीÓ हाथ में लिए नृत्य करते हैं। गेली अथाज़्त बाँस पर घुँघरू और रूमाल का बँधा होना। कुछ युवक पैरों में भी घुंघरू बाँधकर गेर नृत्य करते हैं।

दक्षिणी गुजरात के धरमपुर एवं कपराडा क्षेत्रों में कुंकणा, वारली, धोडय़िा, नायका आदि आदिवासियों द्वारा होली के दिन खाने, पीने और नाचने (खावला, पीवला और नाचुला) का भव्य कायज़्क्रम आयोजित किया जाता है। ये आदिवासी होली के त्योहार के दिनों में जीवन के दु:ख, ददज़् और दुश्मनी को भूलकर गीत गाकर तथा तूर, तारपुं, पावी, कांहली, ढोल-मंजीरा आदि वाद्यों की मस्ती में झूमने लगते हैं। वे ढोल-नगाड़ों, पावी (बाँसुरी), माँदल, चंग (बाँस से बना एक छोटा बाजा या ढोल जिसे वांजित्र कहा जाता है) आदि के साथ नाचते-कूदते-गाते हुए एक गाँव से दूसरे गाँव घूमते हुए, अबीर-गुलाल के रंगों की वषाज़् करते हुए थाली लेकर फगुआ माँगते हैं। कुछ आदिवासी लकड़ी के घोडे पर सवारी करते हुए या स्त्री की वेशभूषा पहनकर आदिवासी शैली में नाचते-गाते हैं। गुजराज के डांग अंचल में होली के अवसर पर डांग जनजाति की होली भी देखने लायक रहती है। इसे वे डांगी होली कहते हैं। इसी तरह भारत के प्रत्येक प्रांत के आदिवासियों की होली में समानता पाई जाती है। वे लोग होली का उत्सव एकजुट होकर मनाते हैं। एकजुट होकर नाचते, गाते और पीते-खाते हैं। वे पूणज़्त: परंपरागत होली ही मनाते हैं। रंगों में वे प्राकृतिक रंगों का ही इस्तेमाल करते हैं। होली का त्योहार उनके लिए संबंधों को और मजबूत करने का जरिया तो है ही साथ ही वे इस त्योहार के दिन अपने लिए नया जीवन साथी भी ढूँढ लेते हैं।

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