Bhima Koregaon
जयपुर। महाराष्ट्र में 1 जनवरी, 1818 को पुणे के नजदीक भीमा-कोरेगांव में पेशवा बाजीराव और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया था। इस युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से महार रेजीडेंट के आठ सौ सैनिकों ने भी हिस्सा लिया। महार सैनिकों की बहादुरी और हिम्मत के आगे पेशवा बाजीराव के सैनिकों के छक्के छूट गए थे और उनकी करारी हार हुई थी। इस युद्ध ने महाराष्ट्र में राजनैतिक व सामाजिक चेतना भी जाग्रत की थी। अभी तक अजेय समझे जाने वाले पेशवाओं के प्रति अंग्रेजों और दूसरी जातियों की भ्रांति टूटी थी। तब देश में मुगलों के बाद पेशवा ही शक्तिशाली माने जाते थे और उनसे कोई यु्दध लड़ने से कतराते थे। भीमा कोरेगांव का युद्ध भी बड़ा ऐतिहासिक था। यह युद्ध बारह घंटे तक चला था। पेशवा बाजीराव की सेना में 28 हजार सैनिक थे तो अंग्रेज रेजीडेंट में एक हजार सैनिक थे, जिनमें आठ सौ महार सैनिक थे।
इतिहासकारों के मुताबिक, अंग्रेजों की इस रेजीडेंट को रोकने के लिए पेशवा ने दो हजार सैनिकों की एक टुकड़ी भेजी थी। संख्या में कम होने के बावजूद अंग्रेज और महार रेजीडेंट के सैनिकों ने बहादुरी से पेशवा बाजीराव की टुकड़ी से टक्कर ली और मराठाओं को जीतने नहीं दिया। उनकी बहादुरी के आगे मराठाओं को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। इस हार से पेशवा बाजीराव को बड़ा धक्का लगा था। हार की सूचना पर पेशवा बाजीवार खुद सेना लेकर भीमा नदी पर पहुंचा, लेकिन महार रेजीडेंट ने उसे आगे नहीं बढ़ने दिया। इस जीत से ईस्ट इंडिया कंपनी की शोहरत बढ़ी। इस युद्ध के लिए आजादी के कई साल बाद भारत सरकार ने भी 1981 में स्टाम्प जारी किया था। युद्ध में विजयश्री के तौर पर महार व दलित समुदाय एक जनवरी को भीमा कोरेगांव में जलसा मनाता है। हालांकि इस बार मराठाओं के विरोध के चलते जलसा हिंसा में तब्दील हो गया।

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