-शास्त्री कोसलेन्द्रदास
jaipur.प्रकाश की अमर परंपरा का प्रतीक दीपोत्सव ‘प्रसन्न रहने और प्रसन्नता बांटने’ का संदेश देने हर साल आता है। यह परंपरा के प्रति दायित्वबोध का पर्व है। सहस्राब्दियों से कार्तिक की अमावसी रात में स्वर्ण प्रकाश तलाशता यह पर्व हमारे चारों ओर अज्ञान और अन्याय के पसरे अंधेरे को सगर्व चीरकर ज्ञान और न्यायरूपी उजाले की विजय रात्रि है। यह जीत कोई सामान्य विजय नहीं है। यह तो मानव के हाथों से बने नन्हें—नन्हें दीपों के सहारे की गई लड़ाई है, जिसमें अंधेरा हार गया। अंधेरे से लड़ने के ये हथियार विधाता ने नहीं बल्कि मानव ने मिट्टी और पानी मिलाकर खुद तैयार किए हैं। इस नाते ये दीप असाधारण हैं। जब सूर्य और चंद्र अस्त हो जाते हैं तो मानव रोशनी की इन्हीं प्रजाओं के सहारे अंधेरे को ललकारता है। उजाले और अंधेरे के इस द्वंद्व युद्ध में प्रकाश अंतत: अंधेरे को पछाड़ देता है।

पौराणिक तथ्यों के हिसाब से दिवाली वैदिक काल से चले आ रहे रक्षाबंधन, विजया दशमी, होली और दीपावली, इन चार पर्वों में एक है। इसका इतिहास सनातन है। यह ऋषि और कृषि एकता का परिचायक पर्व है। प्राचीन जनश्रुतियां बताती हैं कि प्रकाश पर्व चौदह वर्षों का वनवास समाप्त कर अयोध्या में श्रीराम की वापसी पर मनाया गया उत्सव है। अयोध्यावासियों का मानना था कि अब पादुका प्रशासन समाप्त हो गया है। पुत्रमोह में जकड़ी कैकेयी के हठ से फैले अंधेरे पर मर्यादा का दीप जलाने वाले श्रीराम माता सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या आ रहे हैं। इसलिए दीप जलाकर उनके स्वागत के लिए पूरी नगरी के हाट—बाट और सरयू के घाट सजाए गए। रामराज्य की शुरूआत के लिए सहस्रों दीप जलाए गए। राम ने भाई भरत द्वारा 14 साल तक तैयार किए धर्म धरातल पर राम राज्य की आधारशिला रखी। राम राज्य का आधार भोजन, धन, यश और ज्ञान के वितरण की पारदर्शिता है। भेदभाव से दूर जाकर बांटने की सही प्रक्रिया से ही कोई आदमी राम राज्य का रक्षक और सिपाही बन सकता है। पर शास्त्र परंपरा के अनुसार दिवाली का इतिहास इससे भिन्न है। वह श्रीराम के अयोध्या आगमन पर विकसित हुई किंवदंतीपूर्ण कथा से परे है। हालांकि ‘पद्म पुराण’ के हिसाब से रावण को जीतने के बाद श्रीराम की वापसी के दिन अयोध्या में दीपों की कतार से रोशनी होने का उल्लेख है पर पौराणिक विद्वान इसे पुराणों में कालक्रम का विचलन मात्र मानते हैं।

धर्मशास्त्र के अनुसार दीपावली गणपति, सरस्वती और कुबेर के साथ समृद्धि और संपत्ति देने वाली माता लक्ष्मी को पूजने का दिन है। कृषि और नए खाते—बही डालने से जुड़ा लोकपर्व है। सनातन मान्यताओं से चले आ रहे त्योहार पुरातन समाज की बहुमुखी, सुसंगत और बहुलतावादी परंपरा के प्रत्यक्ष परिणाम हैं। ये धर्म के सर्वग्राही एवं व्यापक स्वरूप को प्रकट करते हैं, जो ‘जिओ और जीने दो’ के व्यावहारिक पक्ष पर टिका है। यही कारण है कि सनातन धर्म वेद—पुराणों से चली आ रही एक सीधी रेखा में आज तक निर्बाध और अखंड परंपरा का वाहक है, जो विश्वास और प्रथाओं का एक विश्वसनीय आकार लेता है। इस आकार का सुंदर चेहरा दीपावली है।

दिवाली का इतिहास पुराना है। यह केवल पुराणों से लेकर धर्मशास्त्र के ग्रंथों में ही नहीं छाई हुई है। भारत में आए विदेशी विद्वानों और यात्रियों को दिवाली की जगमग ज्योति ने इतना सम्मोहित और आप्यायित किया कि वे चाहे किसी भी धर्म के मानने वाले रहे हों पर यह उन्हें अपनी ओर बरबस खींच लेती है। 1008 ईस्वी में तुर्की आक्रांता महमूद गजनी के साथ आए फारसी विद्वान अल-बरूनी ने ‘किताब—उल-हिंद’ में ‘दिबाली’ पर एक विवरण लिखा है, जो पुराणों से मेल खाता है। वे लिखते हैं, ‘दिवाली की रात लोग बड़ी संख्या में दीप जलाते हैं। उनका मानना है कि इससे आसपास की हवा शुद्ध होती है। इस त्योहार को मनाने का कारण है लक्ष्मी। भगवान वासुदेव की पत्नी लक्ष्मी वर्ष में सिर्फ एक बार पाताल के राजा बलि को मुक्त करती है। उन्हें पृथ्वी लोक पर अपने राज्य में जाने की अनुमति देती है। इसलिए दिवाली को ‘बलि राज्य पर्व’ भी कहा जाता है।’

भारत रत्न से विभूषित डॉ. पांडुरंग वामन काणे ने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में दिवाली के इतिहास पर लंबा शोध किया। काणे के हिसाब से दिवाली का सबसे पुराना उल्लेख वात्स्यायन के ‘काम सूत्र’ में है, जहां दीपावली ‘यक्ष रात्रि’ है। यक्ष संस्कृति मूल का यह उत्सव तीन दिनों तक चलने वाला एक अनूठा पर्व ‘कौमुदी उत्सव’ था, जो अब पांच दिनों के उत्सव में बदल गया है। वात्स्यायन के अनुसार यह पर्व घर की दीवारों पर दीप पंक्तियों से प्रकाश फैलाकर मनाया जाता था और बाग—बगीचों में अलाव जलाए जाते थे।

यक्ष संस्कृति के नायक कुबेर हैं, जो वैदिक काल से परवर्ती देवता हैं। रामायण में कुबेर धन—संपदा के स्वामी हैं। प्रसिद्ध है कि राक्षसेश्वर रावण ने यक्षेश्वर कुबेर से पुष्पक विमान छीना। कुबेर धन की देवी लक्ष्मी के साथ पूजे जाते हैं। इसलिए लक्ष्मी और कुबेर पूजन दीपोत्सव के केंद्र में हैं। मनुस्मृति के अनुसार दिवाली व्यापारियों का पर्व है। कश्मीर में लिखे संस्कृत ग्रंथ दिवाली को ‘सुख सुप्तिका’ और ‘दीपमाला’ बताते हैं। वहीं, सातवीं शताब्दी में हुए महाराजा हर्षवर्धन ने अपने नाटक ‘नागानंद’ में ‘दीपोत्सव’ को नवविवाहित जोड़ों को उपहार देने का त्योहार माना है। धन्वन्तरि के अवतरण से यह पर्व अमृत कलश के साथ प्रकट होता है। रामानंदाचार्य ने ‘वैष्णवमताब्जभास्कर’ में दिवाली से ठीक पहले की चतुर्दशी को हनुमान जन्म का विवरण दिया है। दूसरी ओर राजा बलि का स्वागत, गोवर्धन पूजा और मृत्यु के देवता यमराज द्वारा अपनी जुड़वा बहन यमी (यमुना) से राखी बंधवाने की कथा भविष्योत्तर पुराण में है। इस नाते दिवाली धन्वन्तरि, हनुमान, श्रीकृष्ण, लक्ष्मी, कुबेर, बलि, यमराज और यमुना से जुड़ा पर्व है। वास्तव में दिवाली एक शृंखलाबद्ध अनुष्ठान—पर्व है, जो हमारी वैविध्यपूर्ण पुरातन परंपरा को सजीव बनाए हुए है।

दिवाली पर दीप की टिमटिमाते किरणें हर साल चेताने आती हैं कि मन में बैठे रावण को मारकर वहां श्रीराम की अयोध्या बनाओ। विलास और मादकता से दूर जाकर धर्म और सदाचरण का माहौल तैयार करो। बहुत धन-धान्य से धर्म का गला घुटता है। क्या आज हमारे शहरों—महानगरों ने ‘ईश्वर’ को बेदखल नहीं कर दिया है? धर्म को मानने की आंच मंद पड़ रही है, जिसके नतीजे सामने हैं। सब कुछ चाहने के फेर में पाप और पुण्य की परिभाषा बदली जा रही है। ऐसे में दिवाली इस ‘समझ’ को बढ़ाती है कि अंधेरा कभी नहीं जीतता, उसे हारना ही पड़ता है। दिवाली में परस्पर प्रीति है। उसमें चहुं ओर प्रकाश ही प्रकाश है। अंधेरे के लिए कहीं कोई गुंजाइश नहीं। बढ़ता पापाचार, राजनैतिक अनियंत्रण और वातावरण का लगातार प्रदूषित होते जाना दीपावली की किरणों को हम से दूर कर रहा है। ऐसे में दिवाली अवलोकन और अन्वेषण का पर्व भी है।

रामानंद संप्रदाय के प्रमुख स्वामी रामनरेशाचार्य कहते हैं, ‘ईश्वर ने मनुष्य के लिए उत्सवों को बनाया, जिससे वह आनंद पा सके। उत्सव से विमुख होना मृत्यु है। उत्सव ईश्वर के रूप हैं।’ जरूरत है दीपावली के उत्सव स्वरूप के ऐतिहासिक आलोक को समझकर एक स्वर्ण आभा वाला दीप जलाने की, जो अन्याय, गरीबी, अशिक्षा और परत़ंत्रता के अंधेरे को मिटा सके। जब ऐसा होगा तब राम वनवास से अयोध्या लौटेंगे। एकबार जब राम लौट आएंगे तो फिर दिवाली एक दिन की नहीं होगी। तब दिवस जाए या निशा आए, दीपोत्सव सर्वदा होगा।

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