– राकेश कुमार शर्मा

जयपुर।  आगरा रोड पर पहाडिय़ों से घिरे घाट वाले बालाजी के नाम से मशहूर बजरंगबली का मंदिर जितना प्राचीन है उतना ही चमत्कारी भी है। कहते हैं यहां आकर मांगी गई हर मन्नत पूरी होती है। किसी काम को शुरू करने से पहले घाट वाले बालाजी का आशीर्वाद ले लिया जाए तो उस काम में सफ लता की पूरी गारंटी होती है। मान्यता है कि यहां बालाजी स्वयं प्रकट हुए थे और तब जयपुर के राज परिवार ने नगर बसाने से पहले बजरंगबली को स्थापित किया था। बालाजी मंदिर में पवनपुत्र की प्रतिमा दक्षिणमुखी है जिन्हें जीवन के सभी दुखों का नाश करने वाला माना जाता है। कहते हैं इनका आशीर्वाद लेने के बाद भक्तों को कठिन से कठिन कार्य में भी सफ लता मिलती है। बजरंगबली भक्तों के कष्ट हरते हैं, उनकी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। भक्तों की ये आस्था अंजनिपुत्र के इस दरबार में आकर और अटूट हो जाती है। कोई भी नया काम शुरू करना हो, अपने नौनिहाल को भगवान का आशीर्वाद दिलाना हो या फि र बच्चे के जन्म से जुड़े संस्कार, भक्त अपने बच्चे को लेकर यहां जरूर आते हैं। खासकर मुंडन संस्कार के लिए बालाजी के इस धाम का अलग ही महत्व है। ऐसी मान्यता है कि घाट के बालाजी के यहां बच्चे के बाल कटवाने से सभी जिंदकी के सभी कष्ट हर लिए जाते हैं। कहते हैं जयपुर को बसानेवाले राजा जयसिंह का भी मुंडन संस्कार इसी मंदिर में हुआ था।

घाट के बालाजी का ये मंदिर प्राचीन मंदिरों में से एक है जिन्हें जयपुर का कुल देवता माना जाता है। प्राचीन समय में मंदिर के आस-पास कई तालाब और पानी के कई घाट हुआ करते थे, जिसके कारण यहां बजरंगबली को घाट के बालाजी के नाम से पुकारा जाने लगा। मंदिर में सुबह 5 बजे बालाजी को स्नान कराकर उन्हें जगाया जाता है और पूरे श्रृंगार के बाद 7 बजे होती है पहली आरती। दोपहर के दर्शनों का यहां विशेष महत्व माना गया है। ऐसी मान्यता है कि दिन में दोपहर 12 बजे से तीन बजे तक घाट के बालाजी के दर्शन करनेवालों को बालाजी जल्द प्रसन्न होकर मनचाहा वरदान दे देते हैं। रात 10 बजे आरती के बाद भोग लगाकर मंदिर के पट बंद कर दिए जाते हैं। घाट के बालाजी का मंदिर जयपुर की प्राचीन इमारतों में से एक है, जिन्हें जयपुर के खूबसूरत महलों का पितामह कहा जा सकता है। मंदिर की दीवारों पर प्राचीन धार्मिक चित्र आज भी सजीव लगते हैंं। मंदिर का मुख्यद्वार झरोखायुक्त शैली से बना है। यह पुरानी हवेलियां मुख्यद्वार की तरह है। पहाड़ी की तलहटी पर बना होने के कारण मंदिर परिसर दो भागों में बना है। मुख्यद्वार से भीतर प्रवेश करने पर एक खुला कच्चा चौक मंदिर का पहला परिसर है। चौक परिसर की प्राचीरों के दोनो कोनों पर छतरियां भी बनी हुई हैं।

इस बड़े चौक से सीढिय़ां हवेलीनुमा मंदिर के दूसरे परिसर तक पहुंचती है। सतह से तीन मंजिला इस मंदिर के मध्यभाग में सिंहद्वार हर मंजिल पर गोखोंयुक्त झरोखों से सुसज्जित है। इसी तरह गोलाकार कोने हर मंजिल पर झरोखा बनाते हुए शीर्ष पर जाकर छतरी में बदल जाते हैं। मुख्यद्वार से कोनों की इन छतरियों को मिलाने के लिए छपा हुआ बरामदा है। बरामदे भीतर से तिबारियों और बाहर से खिड़कियों का काम करते हैं। सिंहद्वार से प्रविष्ट होकर पौलीनुमा गलियारा है जिससे हम मुख्य चौक में पहुंचे। प्राचीन नागर शैली के इस हवेलीनुमाभवन का चौक परिसर कुछ बदला हुआ सा दिखता है। आमतौर पर यह चौक खुला होता है लेकिन दो छोटी मंजिलों जितने ऊंचे इस चौक को छपवाया गया है। इसी चौक में सिंहद्वार के ठीक सामने तिबारीनुमा जगमोहन के अंत:पुर में विराजित हैं घाट के बालाजी। आदमकद विशाल मूर्ति, जिस पर सिंदूर का चोला और चांदी के वर्क का श्रृगार। मीनाकारीयुक्त मुकुट पर लिखा श्रीराम का नाम। मुख्यमूर्ति के बायीं ओर हनुमान की छोटी मूर्ति भी विराजित है। भीतरी परिसर के चौक के चारों तरफ बने बरामदों में से पहाड़ी हवा गुनगुनाती आती है। मुख्य मंदिर के तल वाले बरामदों को जाली से कवर किया गया है। मंदिर के मेहराब, झरोखे कंगूरे, गोखे सभी हिन्दू नागर शिल्प शैली का मनोहारी उदाहरण हैं। चौक के बायीं ओर से संकरी सीढियां दूसरे तल पर बने बरामदे में जाती हैं। ऊपर पहुंचने पर छोटा शिव मंदिर दिखाई देता है। शिवालय में मूर्ति सामान्य संगमरमर की है लेकिन शिवालय से बाहर नंदी और स्तंभ अपने शिल्प से हैरत में डालते हैंं। काली पाषाण शैलों से बने ये शिल्प अदभुत रूप दक्षिण की द्रविड़ शैली की शिल्पकला का आभास देते हैं। स्तंभों पर बारीक नक्काशी की गई है।  यहां मंदिर के बाहर सफेद संगमरमर का फर्श है। बीच-बीच में काले चौक लगे हुए हैं। सभी चौकों के बीच चांदी के एक-एक रुपये के पुराने झाड़शाही सिक्के लगाए गए हैं। यहीं पास ही एक शिलालेख खुदा है, जिसमें बताया गया है संवत 2015 रामरतनपुर निवासी रामसहाय भक्त ने यह सिक्के जड़वाए थे। इस मंदिर के प्रवेश द्वारों पर पीतल की भारी घंटिया लटकी हुई है। इनके बजने पर मधुर ध्वनि पास की पहाडिय़ों से टकराकर घाटी में गूंजने लगती है।

यहीं बरामदा परिसर में पंचगणेश भी विराजित हैं। गणेश की पांच मूर्तियां एक साथ। यहां कोई शिल्प तो नहीं लेकिन गणेश की इतनी सारी सिंदूर का चोला चढ़ी पूजित मूर्तियां देखकर अचंभा होता है। मंदिर का चौक छत से छप जाने के कारण हॉल के रूप सामने है। दीवारों पर प्राकृतिक रंगों से होने वाली चित्रकारी अब पुरानी पड़ गई है लेकिन सौन्दर्य व सजीवता अब तक बरकरार है। कहीं अंजना मां का दुलार पाते बाल हनुमान, कहीं रथ में राम लक्ष्मण के साथ जानकी का विहार, कहीं पर्वत उठाए उड़ रहे पवनपु़त्र तो कहीं राम दरबार में सेवक की भूमिका निभाते बजरंग बली। चित्रों पर कुछ पलों के लिए आंखे स्थिर रह जाती हैं। छतों पर भी उभरी हुई चित्रकारी मन मोह लेती है।

पांच सौ साल पुराना है इतिहास

घाट के बालाजी का यह मंदिर करीब 500 साल पुराना है। जिस प्रकार गोविंद नए शहर के कुलदेवता हैं उसी प्रकार बालाजी भी प्राचीन काल से इस क्षेत्र के कुल देवता रहे हैं। बालाजी की यह मूर्ति स्वयं प्रकट है और इसे जलती ज्योत का मंदिर भी कहा जाता है। प्राचीन समय में इन पहाडियों के आसपास बसे कई गांव और परगनों के लोगों से मंदिर का खास जुड़ाव था। यहां मनौतियां मांगी जाती रही हैं। उनके पूर्ण होने पर जागरण, अनुष्ठान, रामायण पाठ और धार्मिक कार्यक्रम भी होते रहे हैं।  हर साल यहां उत्सवों का माहौल रहता है। कुछ उत्सवों में तो जयपुर और आसपास से श्रद्धालु उमड़ ही पड़ते हैं। खास तौर से लक्खी पौषबड़ा के अवसर पर। इस मौके पर लाखों लोग प्रसादी ग्रहण करते हैं। 50 सालों से यहां लक्खी पौषबड़ा होता आ रहा है। पौषबड़ा के अवसर पर मंदिर में सांगानेर, नायला, चांदपोल और आसपास के कई गांवों से पदयात्राएं यहां आती हैं। हनुमानजी के भजन होते हैं और श्रद्धालु पौष प्रसाद ग्रहण करते हैं। इसी तरह अन्नकूट, शरदपूर्णिमा, रूपचतुर्दशी, हनुमान जयंती और फ ागोत्सव भी यहां धूम-धाम से मनाए जाते हैं। गलता तीर्थ में डुबकी लगाने के लिए इस रास्ते से आने वाले श्रद्धालु यहां माथा जरूर टेक कर जाते हैं।

LEAVE A REPLY