-शास्त्री कोसलेंद्रदास
जून माह के शुरूआती दो हफ्तों में असाधारण रूप से सफल जीवन जी रहे लोगों द्वारा आत्महत्या करने के समाचार

चौंकाने वाले हैं। अमेरिका की प्रसिद्ध फैशन डिजाइनर केट स्पैड ने 55 साल की उम्र में और जाने-माने शेफ, लेखक और टीवी होस्ट एंथनी बॉर्डेन ने 61 साल की आयु में आत्महत्या कर ली। अध्यात्म गुरु भय्यूजी महाराज ने पारिवारिक कलह से परेशान होकर खुद को खत्म कर लिया। मई-जून में लगभग परीक्षाओं के परिणाम आते हैं। परीक्षा है तो पास-फेल हैं। फेल है तो हताशा है। हताशा है तो तनाव होगा ही। तनाव के हालात बनने पर बच्चों द्वारा उठाए जा रहे कदम आत्मघाती हैं। ये आत्मघाती कदम परिवार, समाज और अंतत: देश को नुकसान पहुंचाते हैं। पिछले एक महीने में दसवीं-बारहवीं, विश्वविद्यालयी परीक्षाओं एवं प्रतियोगी इम्तिहानों के परिणाम सैंकड़ों युवाओं की जिंदगी लील चुके हैं। मौजूदा दौर में आत्महत्या ऐसा मर्ज है, जिसका कोई तोड़ सरकारी या सामाजिक स्तर पर नहीं है। हालांकि परीक्षा परिणाम जारी करने के बाद सीबीएसई ने एक हेल्पलाइन नंबर जारी किया है। किसी बच्चे के नंबर कम आए हैं और वह निराश है तो फोन करके अपनी काउंसलिंग करवा सकता है।
जरा सोचिए, यह बच्चों के साथ कैसा भयानक मजाक है? जिस उम्र में बच्चों को खेलकूद, मस्ती और आनंद के साथ थोड़ी बहुत शिक्षा देने के अलावा कुछ सोचना नहीं चाहिए, उस उम्र में वे अव्वल आने के कंपीटीशन में फंसे हुए हैं। कंपीटीशन में विफल होने पर निराशा होना स्वाभाविक है। निराशा के आगे डिप्रेशन है। तनाव का परिणाम कमजोर कलेजे वाले बच्चों को मौत के मुंह तक ले जा रहा है। उस पर यह दृश्य अधिक भयानक है कि राजनेता अव्वल आये बच्चों को पुरस्कार बांट रहे हैं। कोचिंग इंस्टीट्यूट अखबारों में सफल बच्चों की फोटो छापकर अपनी मार्केटिंग कर रहे हैं। चारों तरफ सफलता का छिछोरा ढिंढोरा पीटा जा रहा है, जिसका वास्तविक जीवन में शायद ही कोई उपयोग होता हो। सब बाजार और उपभोक्ता ही बन जाएंगे तो फिर समाज और मनुष्य के लिए भी कोई जगह बचेगी या नहीं? ऐसे में जरूरी है कि भावी पीढ़ी को पैदाइशी डिप्रेशन का रोगी बनने से बचाने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएं।
चिंता का विषय है कि आत्महत्या करने वालों में असफल लोगों के साथ ही सफल लोगों के नाम भी शामिल हो रहे हैं। ढेर सारा पैसा और प्रसिद्धि पा लेने के बाद आखिर वह क्या चीज है, जिसे वे नहीं पा रहे हैं और आत्महत्या कर रहे हैं। जबकि आत्महत्या करने वाले हाई प्रोफाईल लोग अचूक और प्रेरक उत्साह से भरपूर थे। एंथनी बोर्डेन को ही लें तो वे 61 साल की उम्र में भी अकल्पनीय रूप से कार्यशील थे। उन्होंने ढेरों अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते। बोर्डेन ने आत्महत्या करने से दो दिन पहले फैशन डिजाइनर केट स्पैड की आत्महत्या के बारे में लोगों को ऐसे कदम उठाने से बचने की सलाह दी, पर वही काम वे खुद करने के लिए तैयार हो गए। दो दिन बाद एंथनी बोर्डेन ने आत्महत्या कर ली।
सार्वजनिक रूप से हुई विजय और हार की निराशा के बीच का अंतर विश्वासघाती है। यह आभासी अंतर अवसाद पैदा करता है। ऐसा नहीं है कि यह अवसाद बेइलाज है, इसका निदान है। पर कभी-कभार सीमा से परे जाकर इस तरह का अवसाद आत्महत्या तक ले जाता है। मनोवैज्ञानिकों की मानें तो अवसाद आत्महत्या का बड़ा कारण है। उनका कहना है कि यदि अवसाद का इलाज समय पर किया जा सके तो आत्महत्या अतीत की बात हो सकती है। पारिवारिक, वैवाहिक जीवन की अनबन या प्रेम प्रसंग की असफलता से होने से की गई आत्महत्या को समाज ने तर्कसंगत ही बना दिया है। आम बात है जब लोग कहते हैं कि किसी व्यक्ति या महिला ने दांपत्य या प्यार के जाल में फंसकर सुसाइड कर लिया है। यह सच है कि आत्महत्या करने की प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के पास निजी कई कारण हो सकते हैं। लेकिन मुश्किल परिस्थितियां जीवन जीने के विकल्प को समाप्त करने में हमेशा कारण नहीं बन सकती। विपरीत हालातों से लडऩे के लिए लोगों के पास एक आंतरिक भेद्यता होनी चाहिए। ऐसे सैकड़ों लोग हैं जो परिस्थितियों से लडक़र सफल हुए। उन्होंने खुद को बुरी परिस्थितियों में मारा नहीं बल्कि उनका डटकर सामना किया। अंत में उन्हें हराया और जिंदगी की दौड़ में जीत हासिल की।
केंद्र सरकार के आंकड़े पिछले दशक में आत्महत्याओं की संख्या में वृद्धि दर्शाते हैं। आंकड़ों के हिसाब से आत्महत्या के पचास प्रतिशत मामलों में मानसिक हालात का अस्थिर होना समस्या नहीं मानी गई है। वे लोग दूसरे कई मुद्दों से पीडि़त थे, जिन्होंने जीवन को खत्म किया है। इन लोगों के जीवन में पारिवारिक रिश्तों की समस्याएं, फिजूलखर्ची से धन की कमी, तलाक, शारीरिक-यौन बीमारियां और नौकरी या वित्तीय समस्याएं थीं। पर उन्हें आत्महत्या अस्थायी दुख के स्थायी उत्तर की तरह लगती है, जिससे वे घातक कदम उठा लेते हैं। आत्महत्या निराशा से बचने और समस्या से पीछा छुड़ाने का दुखद परिणाम है। अमेरिकी शोध के अनुसार दुनिया में आत्महत्या करने वाले लोगों में सबसे ज्यादा संख्या पचास से पैंसठ वर्ष के लोगों की है। वे महसूस करते हैं कि चलती हुई गाड़ी को रोक लेना ही एकमात्र रास्ता है क्योंकि जिंदगी में अब आगे कोई रनवे नहीं बचा है। वे शराब और बंदूक में जीवन खत्म करने का मार्ग ढूंढने लग जाते हैं। इन घटनाओं का चौंकाने वाला पक्ष इस सवाल से जुड़ा है कि एक सफल व्यक्ति के पास जब ‘सब कुछ’ है तो भी वह अपनी मर्जी से आत्महत्या का खतरनाक विकल्प क्यों चुन रहा है? दरअसल आत्महत्या की कोई सीधी वजह नहीं है। यह तनाव, अवसाद या मानसिक स्वास्थ्य गड़बड़ाने से उपजी स्थितियों का भयंकर नतीजा है।
वैदिक ग्रंथों से लेकर रामायण और गीता में आत्महत्या के खिलाफ जूझने के गहरे परामर्श हैं। ईशावास्योपनिषद् ने आत्महत्या को अधोगति का कारण माना है। गीता में श्रीकृष्ण युद्ध से पलायन करते हुए अर्जुन के अंतर्मन की दशा को भांपकर मानसिक रूप से मजबूती देकर महाभारत के लिए तैयार करते हैं। रामायण में बहुत खोजने पर भी माता सीता के न मिलने पर हनुमानजी जैसे वीर भी आत्मघात की बात करते हैं। लेकिन वे इस मनोदशा का समाधान खुद ही ढूंढ़ लेते हैं कि ‘अनिर्वेद’ सारी समस्याओं का निदान करता है। अनिर्वेद मतलब निराशा का अभाव। वे कहते हैं कि जीवन के बचे रहने पर मनुष्य लंबे अंतराल के बाद भी आनंद पा सकता है।
आत्महत्या की विकट स्थितियों से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता फैलाने की जरूरत है। प्रारंभिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयों तक मानसिक स्वास्थ्य को शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा बनाना चाहिए। अवसाद, चिंता तथा व्यक्तित्व विकार जैसी बीमारियों को परिभाषित करने वाली सामग्री पाठ्यक्रम में जोड़नी चाहिए। रेडियो और टीवी समेत दूसरे संचार साधनों पर कार्यक्रम प्रसारित होने चाहिए। आत्महत्या के निदान के लिए व्यक्तित्व विकास के साथ ही जीवन की दुर्लभता का ज्ञान कराना भी बेहतर होगा।
-शास्त्री कोसलेंद्रदास
असिस्टेंट प्रोफेसर, राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर