– राकेश कुमार शर्मा

जयपुर।  आमतौर पर भवन बनाने से पहले जेडीए इलाके में जेडीए और नगर निगम इलाके में नगर निगम से मंजूरी लेनी पड़ती है। नगर निगम और जेडीए ये मंजूरी बिल्डिंग बाइलॉज के तहत देता है। देखा जाए तो मंजूरी लेने की ये प्रक्रिया पेचीदगीभरी और काफी लम्बी है। आवेदन के लिए ग्रीन फाइल लगाने से लेकर निर्माण की इजाजत मिलने में ही कई साल बीत जाते है। इसका फायदा संबंधित अधिकारी-कर्मचारी और दलाल बेधड़क होकर उठा रहे है। कई ऐसे रास्ते निकाल रखे है। इस तरह हो रहे अवैध निर्माण से न केवल शहर का स्वरूप बिगड़ रहा है बल्कि पार्किंग, ट्रेफिक जाम समेत दूसरी कई समस्याएं  लगातार बढ़ रही है। नगर निगम और जेडीए को भी नियमानुसार राजस्व नहीं मिल रहा। इस खेल में अदालतों का दुरूपयोग भी जमकर किया जाता है। उन्हें अंधेरे में रखकर स्टे ले लिया जाता है या फिर जिन शर्तों पर स्टे मिलता उसकी पालना की ही नहीं जाती। मिलीभगत होने से नगर निगम और जेडीए के अफसर भी चुप्पी साधे रहते है। अड़ोस-पड़ोस के किसी व्यक्ति की शिकायत होती है तो स्टे का बहाना लगाकार कार्रवाई से पल्ला झाड़ लिया जाता है।

जयपुर के ऐतिहासिक स्वरूप को बनाए रखने और ट्रेफिक व्यवस्था के मद्देनजर परकोटे में बहुमंजिला व्यावसायिक इमारतें बनाने पर पाबंदी लगी हुई है। यह पाबंदी कितनी कारगर है इसकी पोल खोलने के लिए नगर निगम की एक रिपोर्ट काफी है। नगर निगम ने विधानसभा में दिए एक उत्तर में जो जानकारी दी है उसके अनुसार निगम के हवामहल पश्चिम जोन में 94 और हवामहल जोन पूर्व 46 बहुमंजिला इमारतों में अवैध निर्माण हुआ है। ये दोनों जोन परकोटे को कवर करते है। पुरानी हवेलियों और भवनों को मरम्मत के नाम पर तोड़कर बहुमंजिला व्यावसायिक परिसर बना दिया गया।

यहीं हाल परकोटे के बाहर सी-स्कीम, मालवीय नगर, जवाहर नगर, राजापार्क, शास्त्री नगर, विद्याधर नगर, प्रतापनगर, मानसरोवर समेत अन्य इलाकों का है। यहां भी आवासीय मकानों को तुड़वाकर उन्हें व्यावसायिक परिसरों का रूप दिया जा रहा है।

नोटिस का नाटक

अवैध निर्माण की शिकायत पर नगर निगम और जेडीए संबंधित भवन मालिक को नोटिस दे कर तलब करता है। भवन मालिक अवैध निर्माण की स्थिति में ये नोटिस मिलीभगत कर प्राप्त कर लेते है और उसके बाद अदालत में गलत तथ्य देकर स्टे ले लेते है। उसके बाद नगर निगम-जेडीए के अधिकारी स्टे होने के बहाने कार्रवाई नहीं करते। इधर, भवन मालिक धड़ल्ले से अवैध निर्माण जारी रखता है। यदि शिकायतकर्ता ज्यादा सक्रिय होता है तो निगम-जेडीए का दस्ता अवैध निर्माण को हटाने की नाममात्र की कार्रवाई कर खानापूर्ति कर लेता है। शहर में हजार से ज्यादा ऐसी इमारतें है जो नियमों की अनदेखी करके बनाई गई है और इनकी शिकायत जेडीए-नगर निगम में दर्ज है। उसके बावजूद उनका निर्माण पूरा हो गया और वे धड़ल्ले से उनका व्यवसायिक एवं आवासीय उपयोग हो रहा है।

 

ऐसे होता है खेल

अब जरा देखते हैं सील का खेल कैसे होता है। इसके उन इमारतों पर नजर डालिए, जिनकी सीज नगर निगम या जेडीए ने खोल दी। जब सील की गई थी तब और वर्तमान स्थिति देखकर खुद ब खुद अन्दाजा लग जाएगा कि सीलके बावजूद वहां अवैध निर्माण हो गया। कैसे हुआ? कौन हैं जिम्मेदार? क्या इन जिम्मेदार अधिकारियों को ये अवैध निर्माण नहीं दिखाई दिया? गार्ड लगाने के बाद भी निर्माण हो रहा है? ये तमाम सवाल ऐसे हैं जो नगर निगम और जेडीए के अधिकारियों की मिलीभगत को उजागर करते है।

अवैध निर्माण दो तरह से होता है। पहला तो यह कि अधिकारी-कर्मचारी मिलीभगत कर पूरा निर्माण होने देते है। विरोध होता है तो उसे नोटिस देकर खानापूर्ति कर दी जाती है।

दूसरा तरीका बड़ा ही दिलचस्प होता है। पचास फीसदी से ज्यादा भवन निर्माण होने पर जेडीए-नगर निगम के अधिकारियों की आंखें खुलती है। वह भी विरोध बढ़ता देखकर। भवन निर्माता को पहले नोटिस दिया जाता है। उसके बाद उस भवन को सीलकरने की कार्रवाई कर दी जाती है। इस बीच अंदर ही अंदर काम जारी रहता है। और जब भवन पूरा हो जाता है तो एक शपथ पत्र लेकर सीलखोल दी जाती है। ऐसे में न तो भवन मालिक को फाइल लगानी पड़ी और न ही व्यावसायिक उपयोग के लिए भू-उपयोग परिवर्तन कराना पड़ा। नगर निगम और जेडीए ने पांच साल में कम से कम 200 भवनों की सीलइस तरह के शपथ पत्र के आधार पर खोली है। जबकि कार्रवाई 396 पर हुई थी।

ऐसा ही एक मामला गुर्जर की थड़ी अंडरपास से सटी दस मंजिला इमारत व अमानीशाह नाला से सटी सरकारी जमीन का है। जेडीए ने पहली बार जब इस इमारत को सीलकिया था तो यह अधूरी बनी हुई थी। सीलके दौरान ही यह पूरी तरह बन गई। इस इमारत की निगरानी के लिए दो गार्ड लगाए गए थे। इसके बावजूद इमारत में धडल्ले से निर्माण चलता रहा। मामला जब बिगडऩे लगा तो जेडीए ने नोटिस देकर दुबारा इमारत सीलकी। इसके बाद मामला कोर्ट में चला गया और इमारत बन कर पूरी तरह तैयार हो गई।

जनता होती है परेशान

परकोटे में मनीराम जी की कोठी का रास्ता हो या फिर नाहरगढ़ रोड़। यहां दिनभर जाम लगा रहता है। वजह यहां बड़ी संख्या में भवनों में व्यवसायिक गतिविधियां चल रही है। पुरानी इमारतों को ध्वस्त कर उन्हें व्यवसायिक परिसरों का रूप दे दिया गया।

-पहली समस्या इनमें पार्किंग के कोई प्रावधान नहीं किए। सड़कों पर वाहनों की पार्किंग और लोगों की आवाजाही से पूरे इलाके की ट्रेफिक व्यवस्था अस्तव्यस्त रहती है।

-दूसरी समस्या इन भवनों को सीवरेज की निकासी की है। परकोटे में जो सीवरेज लाइनेंं है वह करीब 40 साल पहले  तत्कालीन जनसंख्या के हिसाब से डाली गई थी। अब आबादी बढऩे से ये आए दिन जाम हो जाती है।

-तीसरी समस्या पीने के पानी की है। पानी की किल्लत हर व्यवसायिक परिसर में बनी हुई है। इसका फायदा पानी माफिया उठा रहा है। मुंह मांगी कीमत पर पानी बेचा जाता है।

-चौथी समस्या प्रदूषण की है जो काफी अहम है। वाहनों की आवाजाही और ट्रैफिक जाम के कारण इन इलाकों में प्रदूषण बढ़ रहा है।

-पांचवी समस्या व्यावसायिक निर्माण होने पर सफाई की समस्या हो जाती है। निगम की गाड़ी सवेरे आकर कचरा ले जाती है। उसके बाद इन इमारतों में बनी दुकानों और ऑफिसों में सफाई होती है। दिन भर का कचरा सड़क पर बिखेर दिया जाता है। सड़क पर गंदगी आ जाती है।

-छठी समस्या सड़कों की है। छोटी गलियों एवं रास्तों में सड़कों का निर्माण बिना किसी मापदंड के होता है। ऐसे में वाहनों की रेलमपेल बढ़ जाती है तो वह समय से पहले टूट जाती है।

इसलिए होता है निर्माण

रिहायशी इलाके में व्यावसायिक इमारत बनाने का कारण गलत सरकारी नीतियां और योजनाओं में खामी होना है। शहर में ज्यादातर कालोनियां हाउसिंग बोर्ड, जेडीए और हाउसिंग सोसायटियों ने बनाई है। हाउसिंग बोर्ड और जेडीए ने इन इलाकों में बाकायदा शॉपिंग काम्प्लेक्स भी बनाए है लेकिन वह कालोनी से दूर होने या वहां की दरें ज्यादा होने के कारण बिक नहीं पाते। ऐसे में व्यापारी को दो मकान या बड़ा मकान खरीद कर वहां कांप्लेक्स बनाना या मकान में दुकान खोलना आसान लगता है। मकान मुख्य सड़क में होने के कारण व्यापारी के लिए ज्यादा आकर्षक हो जाता है। वह कालोनी से दूर जाकर शापिंग कांप्लेक्स में जमीन या दुकान खरीदने की बजाय मुख्य सड़क मार्ग का मकान खरीदना ज्यादा पसंद करता है। कालोनी से जुड़ा होने के कारण वहां आसानी से ग्राहक आ जाते हैं और व्यवसाय भी अच्छा चलता है। ऐसे में हाउसिंग बोर्ड या जेडीए के शॉपिंग कांप्लेक्स में दुकानें या जमीनें लंबे समय तक खाली ही रहते हैं।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण जेडीए का नेहरू प्लेस, राजापार्क का शापिंग सेंटर, मालवीय नगर में बने शापिंग सेंटर की दुकानें आज तक खाली है जबकि राजापार्क और टोंक रोड सबसे व्यस्ततम जगह है पर लोग यहां दुकानें नहीं खरीदते। इसके उलट मालवीय नगर में बना गौरव टावर और दूसरे शापिंग कॉप्लेक्सों में दुकानें लेने के लिए होड मच जाती है। इसका एक कारण यह भी है कि निजी बिल्डर अच्छा निर्माण करता है दूसरा वह अपने यहां दुकानें लेने वालों को बिजली-पानी साफ सफाई की सुविधा भी प्रदान करता है जबकि जेडीए या हाउसिंग बोर्ड की जमीन पर दुकान बनाने से लेकर सारा काम खुद करना पड़ता है। जेडीए और हाउसिंग बोर्ड इस तरह की कोई सुविधा नहीं देता।

व्यापारी वहां पर धंधा करना चाहता है जहां सबसे ज्यादा लोग रहते हैं। वह इलाका रिहायशी है। चाहे मानसरोवर हो या सांगानेर, झोटवाडा हो या आमेर अथवा चारदीवारी। लोग भी अपने आसपास से ही सामान लेना पसंद करते हैं। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के कारण मकानों में दुकानें नहीं चल सकती। कोई व्यावसायिक निर्माण भी नहीं हो सकता। व्यावसायिक निर्माण कराना हो तो पहले भूखंड को रूपांतरण करा कर आवासीय से व्यावसायिक कराना जरूरी है। इस नियम के तहत भूखंड को व्यावसायिक कराने में पहले तो नियम बाधक बनते है दूसरा इसका तरीका इतना खर्चीला और परेशानी वाला है कि लोग इसकी बजाय आसान तरीका अपनाते हैं। इसे रोकने का आसाना सा तरीका है। आवासीय इलाकों में व्यावसायिक निर्माण करने में सहूलियत दी जाए और नियमों को सरल किया जाए तो नगर निकायों का राजस्व भी बढ़ेगा और अवैध निर्माण नहीं होंगे।

शहर के आवासीय इलाकों में बिना स्वीकृति के निर्माण करने और व्यवसायिक गतिविघियां करने पर खोली गई सील

नगर निगम ने शहर के अलग अलग जोन में बिना इजाजत के आवासीय क्षेत्र में निर्माण कर व्यावसायिक गतिविधियां करने पर विभिन्न भवन सीलकिए। शपथ पत्र के आधार पर उनकी सील खोल भी दी। इसके लिए इन लोगों को किसी तरह का नक्शा पेश करने की जरूरत नहीं पड़ी।

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