जयपुर. जवाहर कला केन्द्र (जेकेके) में आयोजित किये जा रहे परफाॅर्मिंग आट्र्स फेस्टिवल ‘नवरस‘ के तीसरे दिन आज जेकेके में 1920 के दशक की दिल्ली साकार हुई। ‘‘मुद्दतों के बाद पहुॅचें वकील साहिब महक के कमरे में तो लगा ही नहीं कि अपने से जुडा कुछ पुराना भी रखा है वहां। सीढ़ियाॅ चढ़ अन्दर दाखिल हुए तो पल भर को अटपटा सा महसूस किया।‘‘ यह शब्द थे सयैदा हमीद के। वे आज जेकेके में कृष्णा सोबती के उपन्यास ’दिल-ओ-दानिश’ की रीडिंग कर रही थी। अनुराधा कपूर द्वारा परिकल्पित एवं निर्देशित, इस आयोजन में सयैदा के अतिरिक्त दानिश इकबाल और लोकेश जैन ने उपन्यास के चुनिंदा हिस्सों का वाचन कर दिल्ली की गंगा-जमुनाई तहजीब को दर्षाते रिष्तों का तानबाना प्रस्तुत किया।
प्रेम, भाषा और स्वाद के माध्यम से यह कार्यक्रम के दौरान दर्षकों को दिल्ली और यहां रह रहे दो परिवारों के जीवन का इतिहास बताया गया। कार्यक्रम के बीच-बीच में गरम-गरम चाय, नमकीन, जलेबी, कचोरी भी श्रोताओं को पेष की गयी। इसने आगुंतकों को पुरानी दिल्ली की दावतों और नाष्ते की याद दिलायी।
कलाकार हाथों में पुस्तकें लेकर एक तख्त पर बैठे और अभिनय के स्थान पर उन्होंने पुस्तकें पढ़ी और दर्षक को किस्से सुनायें। श्रोताओं को भी पढ़ने के लिए पुस्तक की प्रतियां दी गयी। रीडिंग के माध्यम से, श्रोताओं ने पुरानी दिल्ली के कमरों, हवेलियों, सड़कों और दुकानों में प्रवेश किया। श्रोताओं को  आराम से बैठने के लिये मुड्ढे, गद्दों दिये गये थे।
तीन घंटे की अवधि वाली इस रीडिंग के दौरान समय को एक लय में पिरोया गया। इसके जरिए दिल्ली के उस दौर के बारे में बताया गया, जब यह शहर धीरे-धीरे बढ़ रहा था और यह वर्तमान की दिल्ली एनसीआर से बेहद भिन्न था।
पांचाल ने बताया कि इस नाटक की कहानी में मनुष्य और प्रकृति के मध्य के सम्बंध का चित्रण किया गया है और इनके मध्य होने वाले परस्पर संघर्षों के बारे में भी बताया गया है। उन्होंने आगे कहा कि दर्शकों तक पहुंच बनाने के लिए मैं चाहता था कि यह नाटक दर्षकों का बेहद निजी अनुभव के समान हो इसलिए मैंने नाटक में कविताओं एवं कहानियों का संयोजन किया। इसके लिए उन्होंने नाटक की सामग्री पर जोर दिया, कहानी को विभिन्न हिस्सों में बांटा और इसकी कहानी को बताने के लिए संवाद के स्थान पर रूपकों एवं रूपांकनों का प्रयोग किया। पांचाल ने कहा कि वे मानते हैं कि संवाद की तुलना में ‘सामाजिक  सम्बंध‘ अधिक महत्वपूर्ण होते हैं और सिर्फ ‘भाषा‘ कहानी को आगे बढ़ने का एकमात्र माध्यम नहीं होती है।

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