– राकेश कुमार शर्मा

जयपुर। भगवान भोलेनाथ। नाम ध्यान में आते ही हर किसी के मन-मस्तिष्क में भगवान शंकर का चिता भस्म के अंगराग और काल सर्प के आभूषणों से विभूषित, श्मशानवासी, अमंगलवेषी चित्र सामने आने लगता है। देश-दुनिया में कहीं भी मंदिरों में ऐसे ही स्वरुप के चित्र मिलते हैं। लेकिन जयपुर में एक मंदिर ऐसा भी है, जहां भगवान भोलेनाथ को वैभव के हिंडोले में झुलाते हुए स्वर्णा-आभूषणों से श्रृंगारित स्वरुप में है और उन्हें राज-राजेश्वर की उपाधि देकर पूजा-अर्चना भी होती रही है। भगवान भूतनाथ को भी स्वर्ण-रजत का स्पर्श पाकर अपना स्वरूप विस्मृत करते देखना देवाधिदेव के उपासकों के लिए आनन्ददायी रहा है। अघोर शिव के ऐसे दमकते रूप के दर्शन जयपुर के सिटी पैलेस स्थित राजराजेश्वर शिवालय में होते हैं। औघड, भूत-पिशाच सेवित भगवान रुद्र को जयपुर के राजमहल में स्वर्ण-रत्नों की आभा से दमकते देखना भक्तों के लिये विचित्र किन्तु सुखकारी अनुभव होता है। इस अनूठे कर्म का सामथ्र्य जयपुर राजवंश के एकमात्र शिवभक्त महाराजा रामसिंह में ही था, जिन्होंने अपने अराध्य को राजराजेश्वर बना कर वैभव के हिंडोले में झुला ही दिया। धन-वैभव का स्वर्णिम स्पर्श भूतनाथ का भी कायाकल्प कर गया। चिता भस्म की जगह केसर-चंदन, बाघाम्बर के स्थान पर रेशमी वस्त्र और सर्पाभूषणों की बजाय दस किलोग्राम से भी अधिक वजन के रत्नजटित स्वर्ण रजत आभूषणों से देवाधिदेव दमकने लगे। शिव के वैभव का प्रभाव माता पार्वती पर भी पडना स्वाभाविक था। वे भी अपने कल्याणमय स्वरूप के साथ स्वर्णाभूषणों की चकाचौंध से भक्तों के नेत्र तृप्त करने लगीं। ऐसे में सेवक कैसे पीछे रह सकते थे? वीरभद्र और बटुक भैरव भी स्वर्णालंकारों और रेशमी वस्त्रों से सज-धज गए। देवाधिदेव के इस अनुपम रूप को देख कर आँखें पथरा जाती हैं। इस छवि के सामने उनकी अब तक की गई समस्त स्तुतियां निरथज़्क सी प्रतीत होने लगती हैं। महान शिवभक्त रावण विरचित  शिव ताण्डव स्तोत्र हो या शिवमहिम्न स्तोत्र, किसी में भी भगवान रूद्र के ऐसे वैभवशाली रूप का उल्लेख नहीं हुआ है।

महाशिवरात्रि पर सिटी पैलेस स्थित राजराजेश्वर शिवालय में शिव परिवार के ऐसे वैभवशाली स्वरूप के दर्शन कर भक्तों के नेत्र तृप्त हो जाते हैं। स्वर्ण-रत्नों से लकदक देवाधिदेव और माता पार्वती के दर्शन, दर्शक की आँखों को पीलिया पीडित सा कर जाते हैं, जिसे सब कुछ पीला ही दिखाई पडता है। उस दिन शिव पार्वतीजी सोने के इकत्तीस, सोने पर मोती आदि रत्नों के जडाव वाले सत्ताईस और चाँदी पर सोने की पॉलिश के ग्यारह आभूषण धारण कर अपना राजराजेश्वर नाम सार्थक करते दिखाई देते हैं। भोलेनाथ के तिलकनुमा हार, अर्धचन्द्र कुण्डल, मुकुट, चन्द्रमा, कलंगी, पट्टी, चौसर, छत्र आदि के अतिरिक्त चाँदी पर सोने की पॉलिश की चौहत्तर नगोंवाली मुण्डमाला, दुपट्टे, बिल्वपत्र और प्रभामण्डल को प्रदर्शित करने वाला तेजप्रकाश धारण करते हैं। दिगंबर शिव सिर पर फेंटा बाँधने से नहीं चूकते। पति की अनुगामिनी बनी पार्वती भी सलमे-सितारे जडे वस्त्रों पर 53 नगों का जडाऊ हार, 24 मोतियों के जडाव का स्वर्ण नेकलेस, जडाऊ कलंगी , चन्द्रमा, कुण्डल, नथ, पंचमणिये जैसा बडा हार, फूलझुमके, पौंहची, अधज़्चन्द्र, बिल्वपत्र, दुपट्टे, टोपी और नीलोफ र धारण कर भक्तों को अपने वैभवशाली स्वरूप के दर्शन देने के लिए तैयार हो जाती हैं।

राजा के ईश्वर होने से कहलाए राज-राजेश्वर

महाराजा रामसिंह के आराध्य शिव के राजराजेश्वर के नामकरण को लेकर भी अनेक मत हैं। सृष्टि में परिपूर्ण मानी जाने वाली तन्त्र शास्त्र की महत्वपूर्ण देवी राजराजेश्वरी के नाम पर इन्हें राजराजेश्वर कहा जाने लगा। यह भी कहा जाता है कि राजा के ईश्वर होने के कारण ये राजराजेश्वर प्रसिध्द हुए। गर्भगृह के सामने दीवार में प्रतिष्ठित पार्वती जी का तीन फुटा विग्रह भी निराला है। मां पार्वती का दुर्गा स्वरूप भले ही दशभुजी हो, लेकिन वे स्वयं द्विभुजी ही चित्रित-निर्मित होती रहीं हैं। गर्भगृह के बाहर द्वार के एक ओर गौर भैरव और दूसरी ओर  काल भैरव हैं । सामान्य बोलचाल में इन्हें गोरे और काले भैरूं कहा जाता है। किन्तु तंत्र शास्त्र में गौरवर्णी बटुक भैरव हैं, जो सदैव बालरूप में रहते हैं और प्रत्येक भौतिक सिध्दि प्रदान करने में सक्षम माने जाते हैं। श्याम वर्णकाल भैरव का नाम और उपासना दोनों ही भयोत्पादक, किन्तु सभी सिध्दियां प्रदान करने वाली मानी गई है। इन चतुभुजी भैरवों के हाथों में डमरू, त्रिशूल, खप्पर, चंवर हैं। त्रिनेत्री भैरवों ने मस्तकों पर मौरयुक्त मुकुट भी धारण किये हुए हैं। जयपुर के राजाओं में रामसिंह ही एकमात्र शैव मतावलंबी थे। यह सन्यासी राजा चन्द्रमहल और जनानी डयोढी के बीच अपने आराध्य का मन्दिर बनवा कर, स्वयं इसके पीछे हॉलनुमा कमरे में रहते थे। अपना सम्पूर्ण वैभव शिवचरणों में अर्पित कर वे स्वयं सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। तीन घंटे पूजा, अर्चना, ध्यान के बाद लौट कर वह भोजन करते। लकडी क़े कलात्मक सिंहासन पर स्फ टिक के पारदर्शी शिवलिंग के दोनों ओर काले पत्थर पर निर्मित विशाल श्रीयंत्र है। स्फ टिक पर निर्मित एक छोटा श्रीयंत्र बीच में रखा है। इनके अतिरिक्त कालेपत्थर के शालिग्राम और शिवलिंग भी हैं। सिंहासन पर कुल सात यंत्रों में से चार स्फ टिक और तीन काले पत्थर के हैं। इनकी सेवा पूजा रामसिंह स्वयं करते थे।

साल में तीन दिन होते हैं दर्शन

आम जनता के लिए राजराजेश्वर के दर्शन वर्ष में तीन दिन ही खुलते हैं। महाशिवरात्रि पर दो दिन और अन्नकूट पर एक दिन आम जनता को दर्शन देने के लिए जब देवाधिदेव सज-संवर कर तैयार होते हैं, तो उनके इस अनुपम स्वरूप के दर्शन कर भक्त दर्शकों की आँखें पथरा सी जाती हैं। कडे पहरे में हजारों भक्त दर्शन कराने आते हैं। प्रतिदिन विधिविधान से पूजा-अभिषेक के बाद राजराजेश्वरजी को भोग लगता है। भोग में दिन में चावल, दाल, फु लके और खीर तथा रात्रि में पूरी,सब्जी औरमूंग की दाल के लड्डू होते हैं। गर्भगृह के बाहर दाहिनी ओर लगभग अढाई फु ट उंचे अत्यन्त दुर्लभ श्वेतार्क गणपति हैं। सफेद आंकडे क़ी जड से निर्मित गणेश का तंत्र शास्त्र में भारी महत्व है। दो से छह इन्च के श्वेतार्क गणपति ही दुर्लभ होते हैं, उस पर ये अढाई फुट उंचे हैं। इन्हें विभिन्न रंगों से सुन्दर ढंग से सजाया गया है। द्वार के दोनों ओर दोनों बटुक और काल भैरवों के विग्रह द्वारपाल की तरह खडे हैं। यहीं पर शिव के परम तांत्रिक और सर्वोच्च शक्तिशाली शरभावतार का भी विशाल और दुर्लभ चित्र है। परिसर में ही भगवान शिव-पार्वती के भव्य और विशाल चित्र लगे हैं। महाराज रामसिंह का भी चित्र यहां है। इन चित्रों को लकडी क़े विशाल फ्रेमों में कांच से मंढ कऱ सुरक्षित रखा गया है। महाराजा रामसिंह के समय धर्म और संगीत के विख्यात विभाग मोद मंदिर और गुणीजनखाना भी इसी परिसर में स्थित था। प्रात:काल भैरवी के मोहक आलाप से राजराजेश्वर और उनके दास जयपुर महाराजा की निद्रा खुलती थी। इसके बाद वे समयानुकूल राग-रागिनियों और नृत्य की उच्चकोटि प्रस्तुतियों से देवाधिदेव को रिझाया जाता था।

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