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jaipur.अतार्किक धार्मिक धाराएं अविवेक तथा अंधविश्वास से जुड़ जाती हैं, जो सुदीर्घ काल तक जीवित नहीं रह सकती। भारतीय परंपरा में ज्ञान और विज्ञान का सम्मिलन है। इसी कारण श्रीकृष्ण अर्जुन को ‘गीता’ में सिर्फ ज्ञान नहीं देते बल्कि विज्ञान के साथ ज्ञान देते हैं।

त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लब देब के महाभारत काल में इंटरनेट उपलब्ध होने से लेकर उत्तरप्रदेश के उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा के माता सीता को ट्यूब बेबी होने जैसे अनोखे बयान का अब केंद्रीय विज्ञान और तकनीकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने बचाव किया है । हर्षवर्धन का कहना है कि प्राचीन विद्वत्ता के बारे में गर्व की अनुभूति करना कोई पाप नहीं है। हमारे पुरातन ज्ञान की प्रशंसा अनेक विदेशियों ने भी की है। भाजपा नेताओं के बयां को सही ठहराते हुए हर्षवर्धन ने कहा कि जब बिना पूर्वाग्रह के अध्ययन करेंगे तो हमें भारत के गौरवशाली अतीत पर गर्व होगा। पिछले दिनों डॉ. हर्षवर्धन ने ही स्टीफन हॉकिंग की मृत्यु के बाद कहा था कि हॉकिंग ने मॉडर्न साइंस की अनेक अवधारणाएं वेदों से ली हैं। यहां तक कि उपराष्ट्रपति वैंकया नायडू कह चुके हैं कि भारत में मोतियाबिंद की सर्जरी और प्लास्टिक सर्जरी जैसी शल्य क्रियाएं पहले से हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इनसे मिलते-जुलते बयान दे चुके हैं।

किसी आधिकारिक पद पर बैठे हुए व्यक्ति को वही बात बोलनी चाहिए, जिसे वह विज्ञान के धरातल पर प्रमाणित कर सके। दिनेश शर्मा का अपने गैरजरूरी बयान में माता सीता को टेस्ट ट्यूब बेबी करार देना प्रमाण के अभाव में शर्मनाक मजाक बनकर रह गया है। इस बयान ने कई ऐसे सवाल भी खड़े किए हैं, जिनका जवाब दुख और विषाद देता है। शर्मा के हिसाब से माता सीता टेस्ट ट्यूब बेबी थी तो उन्हें यह भी बताना चाहिए कि वह किस स्त्री-पुरुष के संयोग का परिणाम थी? मिथिला के राजा जनक और रानी सुनयना की वह पालित पुत्री थी तो उनके जैविक माता-पिता कौन थे? ऐसे शर्मनाक प्रश्र हमारी आस्था और मर्यादा दोनों को भीतर तक झकझोरते हैं। इसलिए आस्था और धर्म में विज्ञान को बीच में न लाए तो ठीक है. यदि लाएं तो उसे प्रमाणित करें। बेसिर-पैर की तुलना करने का क्या औचित्य है?
जिम्मेदार पदों पर बैठे राजनेताओं को अपनी बात तथ्य और प्रमाण के साथ रखनी चाहिए। इतिहास के सहारे दिए बेमतलबी बयान पुरातन और नवीन के बीच संघर्ष पैदा करते हैं, जो सच से कोसों दूर जाकर अवैज्ञानिक विचारों को जन्म देते हैं। विज्ञान कार्य-कारण संबंध से परिणाम को स्वीकारता है। बिना कारण के कोई कार्य वैसे ही नहीं हो सकता, जैसे बिना दूध के दही। ‘श्रुतप्रकाशिका’ ने कहा है, जो ‘अशक्य’ और ‘अप्रयुक्त’ हो, वह धर्म नहीं होता। दर्शन शास्त्र की शाखाएं भी कार्य-कारण सिद्धांत के बिना आगे नहीं बढ़तीं। इसलिए धर्म और विज्ञान को आपस में जोडऩे से पहले प्रामाणिक अनुसंधान की जरूरत है, जो प्रयोग की कसौटी पर खरा उतरे।
जब कभी नेताओं के धर्म और विज्ञान के जुड़ाव पर बयान आते हैं तो वे प्राय: आधी जानकारियों पर टिके होते हैं। प्राचीन भारत की महत्ता बखानते हुए वे ऐसे बयान देते हैं. इसे उनकी धार्मिक नासमझी भी कहा जा सकता है। ऐसे में जरूरी है कि इस तरह के बयान देने से पहले उन्हें वेद, उपनिषद, गीता तथा अन्य आध्यात्मिक विज्ञान के व्यापक अर्थों का अनुभव हो। शास्त्र जब विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरेंगे, तो ही वे कायम रह सकेंगे। वैज्ञानिक पीढिय़ां तभी उनका परिष्कार कर सकेगी। इसलिए वैदिक ग्रंथों का महिमामंडन करने वाले या उनमें छिपे ज्ञान-विज्ञान को नकारने वाले सभी पंथवादियों को चाहिए कि वे इन्हें आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसें। साथ ही यह भी मानना पड़ेगा कि धर्मशास्त्र के ग्रंथों का इस्तेमाल जब सियासत के लिए होता है, तब वे दुनियाभर के लिए विनाशकारी साबित होते हैं। जबकि इनका प्रयोग आंतरिक मजबूती तथा आध्यात्मिक ऊर्जा पाने के लिए होता है तो वे वरदान सिद्ध होते हैं। महात्मा गांधी ने अपनी ऐसी वैज्ञानिक दृष्टि से ‘रामायण’ में स्वराज्य की प्राप्ति के सूत्र खोजे थे। अब्दुल कलाम ने एकबार कहा था, ‘गीता के अमर सूत्र मुझे जीवन की सच्ची दिशा दिखाते हैं।’

लोग सदा से नवीन को शंका की दृष्टि से देखते आए हैं। उन्हें पुराने में सब कुछ स्वर्णिम आभा से जुड़ा दिखाई देता है। इस पुरातन में धर्म और आस्था मिल जाए तो फिर वह अकाट्य तथा हर स्थिति में स्वीकार्य बन जाता है, लेकिन आस्था का संबंध तर्क से होना चाहिए। अतार्किक धार्मिक धाराएं अविवेक तथा अंधविश्वास से जुड़ जाती हैं, जो सुदीर्घ काल तक जीवित नहीं रह सकती। सब जानते हैं कि भारतीय परंपरा एक-दो हजार वर्षों की नहीं बल्कि सबसे पुरातन है। उसका इतिहास वेदों से शुरू होता है। उसमें सदाचारपरक ग्रंथ रामायण और महाभारत हैं। वहां ज्ञान और विज्ञान का सम्मिलन है। इसी कारण श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र में अर्जुन को ‘गीता’ में सिर्फ ज्ञान नहीं देते बल्कि ‘ज्ञानं विज्ञानसंहितम्’ यानी विज्ञान के साथ ज्ञान देते हैं।
विद्वानों ने ‘वेद-विज्ञान’ पर लाखों पृष्ठ लिखे हैं, तो अकाट्य तर्कों पर आधारित हैं। जैसे विज्ञान प्रयोग करता है, वैसे ही हमारे पुरखों ने अपनी बात को प्रायोगिक रूप से सिद्ध करके कहा और लिखा। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को लेकर हजारों ग्रंथ रचे गए। सैंकड़ों टीकाएं लिखी गई. कृषि, पशुपालन, शिल्प, वास्तु, खगोल तथा आयुर्वेद समेत भाषा के विभिन्न पक्षों पर वैज्ञानिक रीति से लिखा गया। इसी नाते पिछली शताब्दियों में सैंकड़ों अंग्रेज विद्वानों ने संस्कृत में लिखे ग्रंथों पर अनुसंधान करने में अपनी उम्र निकाल दी। इनमें मैक्समूलर जैसे बड़े नाम शामिल हैं। अठारहवीं शताब्दी में वेदों तथा वाल्मीकि रामायण के अंग्रेजी अनुवादक राल्फ ग्रिफिथ ने घोषणा ही कर दी थी, ‘विश्व का सबसे बड़ा ज्ञान खजाना संस्कृत भाषा में लिखे वेद, पुराण, इतिहास और सूत्रों में है। इनमें गणित, विज्ञान और खगोल की गहरी जानकारियां हैं.’ तब से यह बात चल पड़ी कि भारत के लोगों ने जिन ग्रंथों को मात्र पूजा- पाठ तथा कर्मकांड तक सीमित कर रखा है, असल में वे ज्ञान-विज्ञान के खजाने हैं। यही कारण है कि वेदों में विज्ञान होने की बात पिछली तीन शताब्दियों से लगातार कही जा रही है।
प्राचीन धारा के लोग सारी समस्याओं का उत्तरदायित्व नए में मानते हैं तो नवीन लोग प्राचीन में. प्राचीन लोगों को सुनते हुए ऐसी दुनिया दिखाई देती है, जिसका मौजूदा समस्याओं से कोई संबंध नहीं है। वे अक्सर कहते हैं कि देश में समस्याएं इसलिए हैं क्योंकि धर्म-कर्म में लोगों की निष्ठा नहीं रही। घोर कलिकाल आ गया इसलिए देश की समृद्धि कैसे हो सकती है? वे यह तर्क भी गाहे-बगाहे उठाते हैं कि आज विज्ञान का जो भी चमत्कार दिखाई पड़ रहा है, वह पहले से ही धर्मग्रंथों में मौजूद है। दूसरी ओर नवीनतावादी देश की अवनति का कारण प्राचीनतावादियों के सिर मढ़ रहे हैं। वे कहते हैं कि जमाना तेजी से बदल रहा है।पश्चिमी देशों के बजाय सारे ग्रंथ भारत के पास थे पर वे आगे बढ़ गए और हमारा देश जहां का तहां खड़ा है। उन्नतिशील भारत पुरातन का मोह कब तक ढोता रहेगा?

प्राचीन और नवीन के संघर्ष में राजनेताओं के गैरजरूरी बयान से कटुता अधिक बढ़ जाती है। लोग एक-दूसरे के पक्ष पर कट्टरपंथ और संकीर्ण विचार फैलाने का आरोप लगाने लगते हैं। बयानों की मजाक होने लगती है। प्राचीनतावादी विचारों को ठेस लगती है कि क्या भारत में विज्ञान पिछली सदियों में ही फैल पाया है? वे धर्म और आस्था के अंध-महिमामंडन के नाम पर रूढि़ बातों को विज्ञान की कसौटी पर कसने से कतराते हैं। वहीं नवीनतावादी वेद-पुराणों के अंधविरोध से भौतिकतावादी विचारों का प्रसार करते हैं। प्राचीन मान्यताओं का उपहास करने वे यह भूल जाते हैं कि शांति, करुणा और प्रेम के लिए प्राचीन कथा-आख्यानों की जरूरत वर्तमान को प्रेरित करने के लिए जरूरी हैं। धर्म और विज्ञान का तालमेल बिठाकर कही गई बात दोनों पक्षों पर प्रभाव तो डालती है, साथ ही, प्राचीन और नवीन के बीच सेतु भी बनाती है।

– शास्त्री कोसलेंद्रदास
असिस्टेंट प्राफेसर, राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर

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