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goa. फिल्म-निर्माण कला की उत्कृष्टता को प्रदर्शित करने के लिए भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) पूरी दुनिया के सिनेमा को एक साझा मंच प्रदान करता है। आईएफएफआई-2019 आज एक ओपन फोरम आयोजित किया गया, जिसमें पैनल विशेषज्ञों ने “रियलिटी आधारित फीचर फिल्में कितनी यथार्थवादी हैं?” विषय पर विचार-विमर्श किया। पैलन विशेषज्ञों में फिल्म निर्माता राहुल रवैल, इंडियन एक्सप्रेस की एसोसिएट एडिटर अलका साहनी, एफटीआईआई के पूर्व छात्र और फोटोग्राफी के निदेशक नरेश शर्मा, अभिनेता और निर्देशक देवेन्द्र खंडेलवाल तथा इजरायल के फिल्म निर्माता डेन वुल्मैन शामिल थे।

बायोपिक्स (जीवनी पर आधारित फिल्में) के बारे में निर्देशक राहुल रवैल ने कहा, “बायोपिक्स डॉक्यू-ड्रामा होना चाहिए न कि वृत्तचित्र।” फिल्म निर्माताओं को इस प्रारूप में हमेशा एक वास्तविक कहानी बतानी चाहिए अन्यथा बायोपिक्स उबाऊ हो सकती हैं। फिल्म निर्माता हालांकि अधिक नाटकीय प्रभाव के लिए कुछ दृश्यों के अनुक्रम को लेकर आश्वस्त थे, लेकिन उनका मत था कि फिल्म को अपनी मूल कहानी से विचलित नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने “भाग मिल्खा भाग” फिल्म बनाई, लेकिन फिल्म उनके वास्तविक जीवन से भटक गई। उन्होंने नाटकीय प्रभाव के लिए कुछ तथ्यों को नहीं दिखाया।

अलका साहनी ने कहा कि मेरे लिए यह महत्वपूर्ण है कि फिल्म के ट्रीटमेंट में कितनी प्रामाणिकता है और कहानी कितनी विश्वसनीय है। “भाग मिल्खा भाग” और “संजू” जैसी फिल्मों को मैं यथार्थवादी नहीं मान सकती। भारत ने बिमल रॉय, मृणाल सेन, सत्यजित रे, ऋत्विक घटक और श्याम बेनेगल की फिल्मों को देखा है, जिनहोंने यथार्थ पर आधारित फिल्में बनाई हैं।
नरेश शर्मा का विचार था कि फिल्मकार दो तरह के होते हैं-एक जो बिना जोखिम लिये सुरक्षित रहकर फिल्म बनाते हैं और कहते हैं कि उनकी फिल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं। दूसरे तरह के फिल्मकार की श्रेणी में मणि रत्नम आते हैं, जिनकी फिल्म “गुरू” धीरूभाई अंबानी के जीवन पर आधारित थी, लेकिन उन्होंने इस बारे में कहीं भी, कुछ भी नहीं कहा। अनुराग कश्यप की “ब्लैक फ्राइडे” फिल्म हुसैन जैदी की किताब पर आधारित थी।
उन्होंने कहा कि किसी फिल्म के पात्र यथार्थवादी सिनेमा को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अभिनेता वास्तविक चरित्रों को निभाते हैं। वे अपनी आत्मा पात्रों में डाल देते हैं, जिससे कोई फिल्म यथार्थवादी हो जाती है।
देवेन्द्र खंडेलवाल ने कहा कि किसी भी चीज से अधिक फिल्म को यथार्थवादी बनाने में ध्वनि, कैमरा और अन्य तकनीकी पहलुओं का योगदान होता है।

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