जयपुर। होली का पर्व देश के कोने-कोने में पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस त्योहार की जानकारी हमें जहां पौराणिक कथाओं के माध्यम से मिलती है। वहीं साहित्यिक ग्रंथों, पाण्डुलिपियों और ऐतिहासिक ग्रंथों में खास तौर पर पढऩे को मिलती है। राजस्थान की धौरा री धरती तो इस त्योहार को मनाने के मामले में पूरे विश्व में ख्यात है। यहां रियासतकाल से ही होली खेलने की प्राचीन परम्परा रही है। जयपुर में तो राजा बकायदा हाथी पर सवार होकर जनता से होली खेलने के लिए निकलते। इस दिन वे हाथों में गुलाल गोटे की जनता पर बौछार करते। जिसमें भीगने के लिए नगरवासी बेताब ही नजर आते थे। इतिहासकारों के अनुसार अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में इस त्योहार के बारे में लिखा है। जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गाह्य-सूत्र शामिल हैं। नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है।
-प्रसिद्ध इतिहासकार अलबरूनी ने अपनी यात्रा स्मरण में होली के बारे में लिखा। वहीं अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में यह स्वीकारा कि होली उत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं।
-अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन इतिहास में संग्रहित है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहांगीर को होली खेलते हुए भी दिखाया गया है।
-शाहजहां के समय तक होली खेलने का अंदाज बदल गया। शाहजहां के जमाने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी अर्थात रंगों की बौछार कहा जाता था।
-मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में कहा जाता है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। इसी तरह हिन्दी साहित्य में कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है।
-महाकवि सूरदास ने बसंत एवं होली पर 78 पद लिखे।
-शास्त्रीय संगीत का होली से गहरा नाता रहा है। ध्रुपद, धमार और ठुमरी के बिना आज भी होली अधूरी है। वहीं राजस्थान के अजमेर शहर में स्थित ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाए जाने वाले होली के गीतों का रंग ही अलग है।
-आज भी ‘ब्रजÓ की होली देशभर में आकर्षण का केंद्र है। यहां बरसाने की लठमार होली बड़ी ही प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं तो महिलाएं उन्हें लाठियों और कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। हरियाणा में प्रथा है कि धुलंडी में भाभी अपने देवर को सताती है।
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