– राकेश कुमार शर्मा
जयपुर। आपराधिक मामलों में अभियुक्तों के खिलाफ सजा प्रतिशत बढ़ाने के लिए राज्य सरकार की ओर से अपनाई गई नई नीति ने प्रदेश के सैकड़ों राजकीय अधिवक्ता, लोक अभियोजक व अपर लोक अभियोजक की नींद उड़ा रखी है। नई नीति में गंभीर दुराचरण, भ्रष्टाचार जैसे मामलों में लिप्त पाए जाने पर नौकरी से तो हाथ धोना पड़ सकता है, वहीं अब अदालतों द्वारा तय किए फैसलों में से पच्चीस फीसदी मामलों में सजा का प्रतिशत कम रहा तो भी सरकार उन्हें नौकरी से हटा सकेगी। इस नियम से प्रदेश भर के राजकीय अधिवक्ताओं, लोक अभियोजकों व दूसरे उन सरकारी वकीलों में खलबली मची हुई है। 22 मार्च, 2016 को जारी इस नई नीति के बाद सरकार ने एक साल के अदालती फैसलों का मूल्यांकन करके 25 फीसदी से कम रिजल्ट देने वाले राजकीय अधिवक्ताओं को नोटिस देकर स्पष्टीकरण भी मांगना शुरु कर दिया है। जयपुर जिले में ही करीब एक दर्जन और पूरे प्रदेश में करीब आठ दर्जन से अधिक राजकीय अधिवक्ताओं को इस तरह के नोटिस दिए हैं। नोटिसों से राजकीय अधिवक्ताओं में खलबली मची हुई है, जिन्हें मिले हैं, उनमें भी और जिन्हें नहीं मिले हैं, उन्हें भी। क्योंकि अब हर तीन महीने में अदालती फैसलों की समीक्षा होगी, जो तय टारगेट (पच्चीस फीसदी) से कम रहेगा, उसकी नौकरी पर संकट रहेगा। आपराधिक मामलों में अभियुक्तों के बरी होने का ग्राफ लगातार गिरते रहने के कारण राज्य सरकार ने नई नीति में सजा का प्रतिशत पच्चीस फीसदी रखा है, ताकि सजा का प्रतिशत बढ़ाया जा सके। सही पैरवी नहीं करने के कारण भी कोर्ट कई बार सरकार और संबंधित विभागों को फटकार लगा चुकी है। साथ ही अवमाननना की कार्यवाही तक का सामना करना पड़ चुका है। हालांकि इस प्रावधान और नोटिसों के चलते जहां राजकीय अधिवक्ताओं में गुस्सा है, वहीं अब सबने मिलकर राज्य सरकार और जनप्रतिनिधियों से मिलकर नई नीति की समीक्षा का दबाब बनाना शुरु कर दिया है। गौरतलब है कि नई नीति में यह प्रावधान फिलहाल राज्य सरकार की ओर से नियुक्त किए गए राजकीय अधिवक्ता, अतिरिक्त राजकीय अधिवक्ता, उप व सहायक राजकीय अधिवक्ता, लोक अभियोजक, अपर लोक अभियोजक, विशिष्ट लोक अभियोजक को शामिल किया है। राजस्थान लोक सेवा आयोग से चयनित राजकीय अधिवक्ता, लोक अभियोजकों आदि को इसमें शामिल नहीं किया है।
– सेल्समैन नहीं है, जो टारगेट तय कर दिए
नई नीति में राजकीय अधिवक्ताओं व लोक अभियोजकों के लिए आठ बिन्दु तय किए गए हैं। इनमें से सात बिन्दुओं को लेकर कोई परेशानी है, लेकिन आठवें बिन्दु को लेकर राजकीय अधिवक्ताओं को खासी आपत्ति है। इस आठवें बिन्दु में साफ है कि जो पच्चीस फीसदी से कम सजा दिलाएगा, उस राजकीय अधिवक्ता व लोक अभियोजक की सेवाएं सरकार खत्म कर देगी। इस बिन्दु पर सर्वाधिक आपत्ति जताते हुए राजकीय अधिवक्ताओं व लोक अभियोजकों का कहना है कि हम कोई मार्केटिंग कंपनी के प्रतिनिधि या एजेन्ट नहीं है, जिसके लिए टारगेट तय कर दिए गए हैं। हम चालान और दस्तावेजी साक्ष्यों के आधार पर सरकार के पक्ष में अच्छी पैरवी कर सकते हैं। उसके आधार पर ही अदालतें भी अपने विवेक, साक्ष्यों के गुणावगुण पर फैसला सुनाती है। यहीं नहीं अधिकांश आपराधिक मामलों में तो पीडित और सरकारी गवाह पक्षद्रोही होने लगे हैं, जिसके चलते अभियोजन पक्ष कमजोर होता है और फैसला अभियुक्त के पक्ष में चला जाता है। ऐसे हालात में सरकारी वकील क्या कर सकता है। आपराधिक मामलों में सबसे पहले अनुसंधान अधिकारी जांच करता है। बहुत से मामलों में ना तो दस्तावेजी साक्ष्य पुख्ता होते हैं और ना ही गवाह। ना ही अपराध की कडी से कडी मिल पाती है। सबूतों के अभाव में आरोपी बरी हो जाते हैं। इसका दोष भी सरकार वकीलों पर लगाया जाता है। इनका तर्क है कि जिस तरह से हमें पच्चीस फीसदी का टारगेट तय किया है, वैसा ही टारगेट अनुसंधान अधिकारी और पुलिस अफसरों पर भी होना चाहिए। क्योंकि सबसे पहले तो वे ही केस का अनुसंधान करते हैं। सबूत और गवाह तैयार करते हैं। पुलिस के इन दस्तावेजी सबूतों के आधार पर सरकारी वकील कोर्ट में सरकार की तरफ से पैरवी करता है। इस संबंध में प्रदेश भर के सभी राजकीय अधिवक्ताओं और लोक अभियोजकों ने सरकार के मंत्रियों और जनप्रतिनिधियों से मिले हैं और उनसे नई नीति के विवादस्पद आठवें बिन्दु को हटाने के लिए दबाब बना रखे हैं। उनका तर्क है कि यह बिन्दु संवैधानिक रुप से ही मूल अधिकारों का हनन है। क्योंकि कोई भी सरकारी एजेंसी ऐसी नहीं है, जो अभियुक्त को गैर कानूनी रुप से बरी करवाना चाहती हो। कानून के प्रावधानों के तहत ही किसी अभियुक्त को दण्डित या बरी किया जा सकता है। सैशन प्रकरणों में पुलिस के अंवेषण के आधार पर चालान पेश किया जाता है। इनमें सरकारी वकीलों की भूमिका सीमित होती है। वे सिर्फ पुलिस अंवेषण के दस्तावेजों के आधार पर पैरवी करते हैं। ऐसे में सिर्फ सरकारी वकील पर समस्त जिम्मेदारी डालना न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है। सरकारी वकीलों का यह भी आरोप है कि राज्य सरकार नई नीति के तहत वर्तमान लोक अभियोजकों को हटाने के लिए यह नई नीति लाई है। सहायक लोक अभियोजककों को पदोन्नत करके सरकार उन्हें नियुक्त करने की योजना बना रही है, ताकि उन्हें हटाया जा सके।
– सरकार का तर्क, नहीं हो रही ठीक पैरवी

राज्य सरकार की ओर से लाई गई नई नीति को लेकर भले ही राजकीय अधिवक्ताओं व लोक अभियोजकों ने विरोध जताना शुरु कर दिया है, लेकिन सरकार नीति के पक्ष में है और इसे लागू रखना चाहती है। सरकार का तर्क है कि जब राजस्थान लोक सेवा आयोग से चयनित लोक अभियोजक, अपर लोक अभियोजक, विशिष्ट लोक अभियोजक अच्छा रिजल्ट दे सकते हैं तो सरकार की ओर से नियुक्त किए राजकीय अधिवक्ता व लोक अभियोजक क्यों नहीं दे सकते हैं। विधि विभाग के आला अफसर ने बताया कि आरपीएससी से चयनित सरकारी वकीलों का सजा दिलाने का प्रतिशत पचास से नब्बे फीसदी तक है। ऐसा नहीं है कि सरकार की ओर से नियुक्त सभी सरकारी वकीलों का सजा प्रतिशत कम है। पचास फीसदी सरकारी वकीलों का रिजल्ट भी अच्छा है। लेकिन जो रिजल्ट नहीं दे पा रहे हैं, उनके बारे में सरकार को सोचना होगा। आए दिन ठीक ढंग से पैरवी नहीं करने के कारण हाईकोर्ट राज्य सरकार, मुख्य सचिव और संंबंधित प्रकरणों के विभागों के प्रमुख शासन सचिवों को फटकार लगाती रहती है और अफसरों को व्यक्तिगत बुला लेती है। कई वकील तो समय पर कोर्ट तक नहीं आते हैं और कई पैरवी नहीं कर सकते हैं। जिसके चलते सरकार की काफी किरकिरी होती है और सरकार और अफसरों पर जुर्माना से लेकर अवमानना की कार्यवाही झेलनी पड़ती है। वहीं सरकार की ओर से नियुक्त राजकीय अधिवक्ताओं का कहना है कि अधीनस्थ अदालतों में आरपीएससी से नियुक्त लोक अभियोजकों और अपर लोक अभियोजकों के कार्य क्षेत्राधिकार और प्रकृति का हमारे कार्य क्षेत्र और प्रकृति में काफी अंतर है। अधीनस्थ अदालतों में अधिकांश प्रकरण सूक्ष्म विचारण के आधार पर, जुर्माना और परीविक्षा अधिनियम का लाभ देकर तय किए जाते हैं और इन्हें सजायाबी रिकॉर्ड में दर्ज कर लिया है, जबकि इस प्रकार के प्रकरण जिला न्यायालयों में विचारित नहीं होते हैं। ऐसे में सरकार और आरपीएससी से नियुक्त लोक अभियोजक व अपर लोक अभियोजकों की तुलना करना गलत है। गौरतलब है कि जिला न्यायालयों और हाईकोर्ट में राजकीय अधिवक्ता, अतिरिक्त राजकीय अधिवक्ता, उप व सहायक राजकीय अधिवक्ता, लोक अभियोजक, अपर लोक अभियोजक, विशिष्ट लोक अभियोजक पॉलटिकिल रुप से नियुक्त किए जाते हैं। कांग्रेस और भाजपा सरकार अपने राज में अपने समर्थकों और विचारधारा के वकीलों को नियुक्त करती रहती है।

ये हैं वे नियम, जिनसे जा सकती है नौकरी

– गंभीर दुराचरण का आरोप या भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में प्राथमिकी दर्ज होने पर सेवामुक्ति हो सकती है।
– माननीय सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय की ओर से न्यायालय प्रकरण में उचित पैरवी नहीं करने के संबंध में अभियोजक के विरुद्ध विपरीत टिप्पणी करने पर सेवा समाप्त हो सकती है।
– न्यायालय में सरकारी पक्ष की ओर से अभियोजक द्वारा पैरवी में निम्न कमी रखने पर आरोपी के दोषमुक्ति का कारण बनती है:-
(क) न्यायालय में राज्य पक्ष की ओर से महत्वपूर्ण दस्तावेज जैसे अभियोजन स्वीकृति, विधि विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट, मेडिकल रिपोर्ट, एक्स रिपोर्ट, धारा 164 दण्ड प्रक्रिया संक्षिात के तहत लिए गए बयान आदि को विधि अनुसार प्रमाणित नहीं कराना।
(ख)न्यायालय में राज्य पक्ष की ओर से प्रकरण का माल वजह सबूत को विधि अनुसार प्रमामिण नहीं करना।
(ग) न्यायालय द्वारा बिना उचित कारण दर्शाए महत्वपूर्ण अभियोजन साक्षीगण की तलबी बंद कर देने पर कोई कार्यवाही धारा 311 दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत प्रार्थना पत्र प्रस्तुत नहीं करना। न्यायालय द्वारा धारा 311 दण्ड प्रक्रिया संहिता का प्रार्थना पत्र खारिज कर देने की स्थिति में आदेश को उच्चतर न्यायालय में चुनौती देने के लिए राय् प्रस्तुत नहीं करना।
– माननीय उच्च न्यायालय, विाचरण न्यायालय द्वारा प्रकरण में अभियुक्त को उन्मोचित या दोषमुक्त कर दिए जाने पर आदेश या निर्णय के खिलाफ निर्धारित समयावधि को ध्यान में रखते हुए अविलम्ब सकारण राय उपलब्ध नहीं कराना।
– न्यायालय के निर्णय के बाद सम्पूर्ण अभियोजन पत्रावली निर्धारित समयावधि को ध्यान में रखते हुए अविलम्ब जिला मजिस्टÓेट या विधि विभाग को अभियोजन गवाह के बयान, प्रदर्शित दस्तावेज व अन्य दस्तावेज सहित प्रस्तुत नहीं करना।
– सम्पूर्ण अभियोजन पत्रावली जिला मजिस्टÓेट या विधि विभाग को भेजते समय सह अभियुक्त के संबंध में पूर्व में लिए हुए निर्णय की विस्तृत जानकारी से अवगत नहीं कराना।
– विधि विभाग के परिपत्र या पत्र में दिए गए स्पष्ट निर्देशों की अवहेलना करना।
– विधि विभाग द्वारा नियुक्त तिथि के बाद प्रत्येक त्रैमास में संबंधित न्यायालय द्वारा गुणावगुण पर तय फैसलों का मूल्यांकन किया जाएगा और एक वर्ष की अवधि में राज्य के पक्ष में दिए गए फैसलों की सफलता दर पच्चीस फीसदी से कम पाए जाने पर सेवा मुक्त कर दिया जाएगा।

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