जयपुर। मीडिया, कला जगत और शिक्षा जगत से जुड़े विचारवान लोगों ने रविवार को राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति में ‘समाचार पत्रों का बदलता स्वरूप’ विषय पर एक गंभीर विमर्श किया और उन स्थितियों को जांचने-परखने का प्रयास किया जिनसे मीडिया का आज का परिदृश्य बन रहा है। संपादक की सत्ता को आज के दौर में भी बनाए रखने वाले जाने-माने पत्रकार ओम थानवी जो इस विमर्श विमर्श में भाग लेने के लिए दिल्ली से खास तौर पर जयपुर आए थे ने आज के मीडिया के बारे में खरी-खरी बातें की जिन्हें सुन कर हर कोई परेशान हो सकता है। इसे स्वीकार करते हुए कि समाचार पत्र निकालना हमेशा ही कारोबार रहा है क्योंकि बिना पूंजी के अखबार निकालना संभव नहीं है। उनका मानना था कि पिछली सदी के ढलते-ढलते समाचार पत्रों का स्वरूप जिस प्रकार बिगड़ने लगा उसी का चरम रूप आज हमारे सामने है। ऐसा क्यों और कैसे हुआ? थानवी का मानना था कि बदले जमाने में देश में बाज़ार की चालाक शक्तियों ने पूंजी पर अधिकार कर लिया और फिर बाज़ार को प्रभावित करने के लिए मीडिया का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। आज जिस हालात में मीडिया है वह उसमें कुत्सित पूंजी के प्रवेश का नतीजा है। इसीलिए आज का मीडिया अपसंस्कृति का प्रचार करता हमारे सामने उपस्थित है। उनका स्पष्ट मानना था कि आज की हिन्दी पत्रकारिता अजीबोगरीब भाषा रच कर हमारी पूरी जीवन शैली को बदलने की कुचेष्टा कर करते हुए हमें बाज़ार का हिस्सा बना रही है। “बाज़ार लोगों के विवेक का हरण कर के किसी और की जेब भरने के लिए लोगों की जीवन शैली को प्रभावित करता है।” पूंजी नियंत्रित मीडिया संस्थानों में काम करने वालों पर भी थानवी की बेलाग टिप्पणी थी कि उनसे तो भाषा की समझ और सामाजिक सरोकार की उम्मीद होती है मगर वे अपने विवेक का इस्तेमाल क्यों नहीं करते? अपने ही सवाल का जवाब देते हुए उनका कहना था “हमारी बिरादरी में अब पढ़ने की आदत नहीं रही और वैचारिक समझ पठन-पाठन से ही संभव होती है।” आज पत्रकार कोई स्टैंड नहीं लेता इसीलिए समाज में प्रतिष्ठा गिरी है और उसके चरित्र पर आंच आई है…स्टैंड लेना पत्रकार की सामाजिक जिम्मेदारी है।”
पत्रकार की तटस्थता पर टिप्पणी करते हुए उनका काहना था कि “निष्पक्षता छलावा वाला शब्द है।” अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए थानवी का कहना था कि प्रत्येक पत्रकार को विचारधारा का हक़ होता है मगर वह खबरनवीस की भूमिका में उसका पैरोकार नहीं होता। सोशल मीडिया को पत्रकारिता के रूप में खारिज़ करते हुए उनका दो टूक कहना था कि यह नया मीडिया आग लगाता है और सांप्रदायिकता भड़काता है। एक सवाल के जवाब में उनका कहना था कि आज भारतीय मीडिया दब्बू बना हुआ है जिससे लोकतान्त्रिक स्पेस घटता जा रहा है। अत्यंत ही सलीके से विषय प्रवर्तन करते हुए दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने समाचार पत्रों में आए तकनीकी और विषयगत बदलावों पर एक समालोचनात्मक टिप्पणी की और कहा परिवर्तनों को रोका नहीं जा सकता और उन्हें हमें स्वीकार करना होगा। बुरी चीजों के साथ अच्छी चीजें भी हुई है। मगर विज्ञापनों और खबरों के बीच सम्बन्धों तथा हिन्दी में अंग्रेजी की मिलावट को उन्होंने चिंताजनक माना।
विमर्श में दैनिक नवज्योति के संपादक महेश शर्मा ने उन स्थितियों का विवेचन किया जिनसे अखबारों को विज्ञापनों पर निर्भर होना पड़ता है। उनका कहना था कि सकारात्मक नज़रिये से देखें तो आज के मीडिया को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। सूचना और जनसम्पर्क विभाग के निदेशक के रूप में अवकाश लेने के बाद अखबार के संपादन के रूप में काम करने वाले अमर सिंह राठौड़ ने अखबारों और सरकार के अंतरसंबंधों पर बात की और सरकारी विज्ञापनों के बूते अखबार चलाने के हालातों को रेखांकित किया। हरिश्चंद्र माथुर लोक प्रशासन संस्थान में प्रोफेसर के रूप में अवकाश प्राप्त समाजशास्त्री मोरहममद हसन का मानना था कि आज के अखबार मीडियोक्रिटी बढ़ा रहे है।
हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति सनी सेबेस्टियन, वनस्थली विद्यापीठ के पूरब प्रोफेसर सुमंत पाण्ड्या और एसोसिएशन ऑफ स्माल एंड मीडियम न्यूज़पेपर्स ऑफ इंडिया के महासचिव अशोक चतुर्वेदी आदि ने भी विमर्श में अपनी बात कही।

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