– कौशल

दूर तक वाहनों का जाम। सरक-सरक कर बढऩे की मजबूरी। कारण मुख्य सड़क के आधे हिस्से तक दुपहिया वाहनों की कतार। इतना हुजूम देख यातायात कर्मियों की भी हिम्मत नहीं हुई कि किसी वाहन को उठाएं और उसका चालान बनाएं। यहां तक कि उसी समय उस ओर जाती नीली बत्ती वाली यातायात पुलिस अधिकारी की गाड़ी का स्टीयरिंग भी नजदीक ही छोटी नटराज वाली गली में मुड़ गया। उन्होंने उस गली के छोर से आगे बढऩा मुनासिब नहीं समझा या बढऩा संभव नहीं था। इस सारी स्थिति का असली कारण तब समझ में आया जब लोग उस गली के छोर से आगे बढ़े। करीब डेढ़ सौ मीटर के उस छोटे से फासले में फैले स्टेशनरी बाजार पर अभिभावकों का कब्जा था या यूं कहें कि बच्चों का तो भी अतिशयोक्ति नहीं। स्कूल शुरू होते ही किताबें-कॉपियां खरीदने के लिए जब अभिभावक बापू बाजार के इस हिस्से में पहुंचे तो यह हालत होनी ही थी। उन अभिभावकों में यह डर कतई नहीं था कि आज उनकी गाड़ी का कोई चालान बनाएगा। शायद वे धार चुके था कि कोई आए तो, तब सवाल उठाएंगे, लेकिन क्या करें, यातायात अधिकारी ने भी गाड़ी मोड़ ली, वे भी लाउडस्पीकर पर बोलते-बोलते थक गए, लेकिन सीधे आगे नहीं बढ़ सके। शायद, वे भी समझ गए हों कि कभी कोई उनके बच्चों के लिए भी कतार में खड़ा होगा।
जी हां, यह नजारा सिर्फ उदयपुर शहर का ही नहीं, बल्कि राज्य के हर शहर का उस वक्त हो जाता है जब वार्षिक परीक्षा का परिणाम आते ही बच्चा नई कक्षा में प्रवेश करता है। जिस भी मुख्य बाजार में स्टेशनरी की दुकानें हैं वहां शाम को जाम की स्थिति बनती है। कारण, पापा शाम को ऑफिस से आएंगे तभी तो किताबें-कॉपियां लेने जा पाएंगे। और, वे शनिवार-रविवार का इंतजार भी नहीं कर सकते, क्योंकि वार्षिक परीक्षा के परिणाम के दिन ही अगली कक्षा की किताबों-कॉपियों की पर्ची पकड़ा दी जाती है। 27 से 31 मार्च तक परिणाम आता है और 1 से 5 अप्रेल के बीच कक्षाएं शुरू हो जाती हैं। सिर्फ 5 दिन में पूरे शहर के बच्चों की किताबें-कॉपियां खरीदने की मजबूरी से होने वाली स्थिति ऊपर बयां कर दी गई है। इन परिस्थितियों में अभिभावक कभी ढंग से पुस्तकें देख नहीं पाता। किसी अभिभावक को कलर, पेंसिल, रबर या अन्य ऐसी कोई सामग्री नहीं चाहिए जो उसके पास है, वह भी उस वक्त माइनस नहीं की जाती। बाद में यदि पुस्तक-कॉपी बदलाने की स्थिति बने तो फिर चार चक्कर लगाने पड़ते हैं, क्योंकि दुकानदार का एक ही जवाब होता है, ‘अभी दूसरी कक्षाओं के सैट चल रहे हैं, छुटकर काम के लिए हफ्ते आईये।
सरकारी नियम पर उठते सवाल
नियम: कुछ साल पहले यह नियम लागू किया गया कि स्कूल अपने परिसर से स्टेशनरी नहीं देंगे। सरकार के स्कूलों में स्टेशनरी नहीं बांटने के पीछे यह मंशा थी कि मनमानी से बचा जा सके। स्कूलों द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम की किताबें तो एमआरपी पर लेनी ही हैं, कम से कम कॉपियां तो बाजार से लेने की छूट मिले ताकि जिसकी जितनी जेब, उतनी सस्ती बाजार में उपलब्ध है।
स्थिति: स्कूलों ने उनके परिसर से स्टेशनरी देना बंद कर दिया, लेकिन पाठ्यक्रम के अनुसार पुस्तकें और कॉपियां स्कूल से नहीं तो दुकान से ही लानी पड़ेंगी। इसके चलते स्कूलों के साथ करार करने वाले स्टेशनर्स के नए ठिकानों की सूचना स्कूलों ने अभिभावकों को देनी शुरू कर दी। परिसर बदला, व्यवस्था नहीं। नियम का तोड़ आसानी से निकाल लिया गया। विभाग ने आज तक एक भी ऐसा मामला न तो पकड़ा न ही इस पर कोई गंभीरता ही दिखाई। आज तक नहीं सुना कि विभागीय अधिकारी अचानक निजी स्कूलों के बताए गए परिसरों में पहुंचे हों। दरअसल, वहां पहुंचने से फायदा भी कुछ नहीं होता। कोई अभिभावक इसकी शिकायत नहीं करता। पाठ्यक्रम तो वही चलेगा जो स्कूल तय करेगा। ऐसे में अलग-अलग जगह से किताबें ढूंढऩे से अच्छा है कि एक ही ठिकाने पर मिल जाएं। अगर उन नए ठिकानों पर न जाओ तो शहर के मुख्य बाजारों में जहां स्टेशनर्स की दुकानें हैं, वहां भीड़ में खड़ा रहना होगा। वार्षिक परिणाम से स्कूल खुलने तक दिन ही कितने मिलते हैं, इस पर किसी ने नहीं सोचा।
पटाखा बाजार की तरह स्टेशनरी की सोच क्यों नहीं
स्टेशनरी की दुकानों के बाहर कतार के मसले को यह कहकर टाल दिया जाता है कि थोड़े ही दिनों की परेशानी है। तो जनाब, आतिशबाजी की बिक्री भी थोड़े ही दिन की परेशानी है, लेकिन उसके लिए अलग से बाजार लगाने की सोच शुरू हुई तो आज घनी आबादी से खतरा दूर रहता है। प्रशासन और स्थानीय निकाय चाहें तो स्टेशनरी खरीदने के लिए स्कूलों और स्टेशनरी वालों से चर्चा कर एक पखवाड़े की अवधि निर्धारित कर किसी बड़े मैदान में स्टेशनरी बाजार लगा सकते हैं जहां पार्किंग की भी समुचित व्यवस्था हो। बड़ा शहर है तो ऐसे बाजार 4-5 जगह लगाए जा सकते हैं। हर शहर में ऐसे मैदान उपलब्ध हैं। अगर ऐसा नहीं किया जा सकता तो यातायात विभाग उस अवधि में मुख्य बाजार या जहां स्टेशनरी की दुकानें हैं वहां यातायात को डायवर्ट कर सकता है।
ऑनलाइन होम डिलीवरी की सोच भी बने
ऑनलाइन खरीदारी के जमाने में इस व्यवस्था को भी अपडेट करने के बारे में सोचा जाना चाहिए। दुकानदार अपने पोर्टल बनाकर वहां ऐसा सिस्टम दे कि अभिभावक अपने बच्चे का नाम, स्कूल, कक्षा लिखकर निर्धारित राशि का भुगतान ऑनलाइन कर दे। इससे सरकार को भी लाभ होगा और हर दुकान का ऑनलाइन लेखा-जोखा उपलब्ध होगा। सरकार ‘दो नंबरÓ पर जिस तरह लगाम रखना चाह रही है, वह भी इससे संभव है। जो दुकानदार पोर्टल नहीं बना सकते वे अभिभावक को निर्धारित राशि जमा कर रसीद दे और दुकानदार उसके घर का पता दर्ज करे। सात दिन में डिलीवरी घर पर दी जाए। इससे भीड़ की स्थिति नहीं बनेगी। वैसे भी दुकानदारों को यह अंदाजा रहता ही है कि जिस स्कूल का पाठ्यक्रम वह बेच रहा है, उसके सैट कितने तैयार करने होंगे। वह समय रहते उनके सैट तैयार करके रखेगा। ऑनलाइन व्यवस्था से दुकानदार के पास समय की बचत होगी। उसका यह समय होम डिलीवरी को आसान बनाएगा। दुकानदार चाहे तो होम डिलीवरी पर कुछ शुुल्क भी रख सकता है, लेकिन इसकी शायद ही जरूरत पड़े। स्कूलों को भी वार्षिक परिणाम से नई कक्षा शुरु होने के बीच समयावधि बढ़ाने की जरूरत है। कम से कम 15 दिन का समय दिया जाना चाहिए तब तक बच्चे पर कोई दबाव नहीं बनाया जाना चाहिए। वैसे भी जब यूनिफार्म वाला बोल दे कि टाई या शर्ट या कुछ और आइटम जुलाई में आएंगे तो स्कूल भी मानता ही है।

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