नई दिल्ली। शहीदे आजम भगत सिंह को न केवल हिंदुस्तान वरन पाकिस्तान की आवाम भी उन्हें एक आजादी के एक दीवाने के तौर पर देखती है। भगत सिंह के प्रगाढ़ देशप्रेम का ही परिणाम रहा कि वे युवाओं के लिए प्रेरणा स्त्रोत बने। अल्प आयु में ही उन्होंने अपना जीवन देश को समर्पित कर दिया। यही नहीं देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू उनके इस अंदाज के पूरी तरह कायल रहे। 12 अक्टूबर 1930 को एक सार्वजनिक भाषण के दौरान भगत सिंह के अदम्य साहस, बलिदान और विशेषकर उस मुकदमे के ढकोसले के बारे में कहा कि मैं उनसे सहमत होऊं या नहीं, मेरा मन भगत सिंह जैसे व्यक्तित्व के साहस और बलिदान से ओतप्रोत है। भगत सिंह जैसा साहब दुर्लभ ही है। अगर वायसराय हमसे उम्मीद करते हैं कि वे हमें इस आश्चर्यजनक साहस और उसके पीछे के उच्च उद्देश्य की प्रशंसा करने से रोक सकते हैं, तो वह गलतफहमी में है। वे अपने दिल से पूछे कि अगर भगत सिंह एक अंग्रेज होते और उन्होंने इंग्लैंड के लिए ऐसा बलिदान दिया होता तो उन्हें कैसा अनुभव होता।
अपनी आत्मकथा ‘मेरी कहानीÓ में भी पं. नेहरू ने लिखा ‘भगत सिंह एक प्रतीक बन गए थे। उनका कार्य (सांडर्स की हत्या) भुला दिया गया, लेकिन प्रतीक याद रहा और कुछ ही महीनों में पंजाब के हर शहर-गांव कुछ हद तक भारत के शेष हिस्सों में उनका नाम गूंजने लगा। उन पर गीत रच दिए गए। उनको जो लोकप्रियता मिली वह वह अद्वितीय थी।
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को पश्चिमी पंजाब के लायपुर जिले के बंगा गांव में हुआ था। उनके पिता किशन सिंह और मां विद्यावती थी। प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही पूरी करने के बाद भगत सिंह लाहौर के डी.ए.वी. कॉलेज में प्रवेश लिया। यहां वे राष्ट्रवादी शिक्षकों के संपर्क में आए। जल्द ही वे छात्र नेता के तौर पर उभरे, बाद में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के आह्वान पर डी.ए.वी. कॉलेज छोड़कर लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया।
1923 से 1931 में फांसी पर चढ़ाए जाने तक भगत सिंह मातृभूमि की आजादी के लिए लड़े। 1925 में युवाओं में क्रांति की ज्योत जगाने के लिए लाहौर में नव जवान भारत सभा की नींव रखी। इस दरम्यान वे सुखदेव, यशपाल, चंद्रशेखर आजाद, यतीन्द्रनाथ दास सरीखे दबंग क्रांतिकारी नेताओं के संपर्क में आए। यतीन्द्रनाथ दास ने सभी साथियों को बम बनाने का प्रशिक्षण दिया। 3 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में एक विशाल जुलूस पर पुलिस ने लाठियां बरसाई। इस लाठीचार्ज के संदिग्ध अंग्रेज अफसर स्कॉट की हत्या को लेकर भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और चंद्रशेखर आजाद ने फैसला किया। 17 दिसंबर 1928 के दिन उन्होंने स्कॉट के फेर में सहायक अधीक्षक सांडर्स की हत्या कर दी। 8 अप्रैल 1929 के दिन भगत सिंह और उनके सहयोगी बी.के. दत्त ने सेंट्रल असेंबली में सत्र में बम फैंका और ‘इंकलाब जिंदाबादÓ के नारे लगा आत्म-समर्पण कर दिया। बाद में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव पर मुकदमा चलाकर और 23 मार्च 1931 की शाम लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गई। अंग्रेज अफसरों ने जनता के आक्रोश को जानकर उनके मृत शरीर भी परिवार को नहीं सौंपे और आधी रात को सतलुज के किनारे दाह-संस्कार कर दिया।

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