नई दिल्ली। हाल ही पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों ने कांग्रेस को नए सिरे से मंथन करने पर मजबूर कर दिया है। विशेषकर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के मामले में तो यही कहा जा सकता है। उत्तराखंड और मणिपुर में सरकार हाथ से गई तो उत्तरप्रदेश में उसे महज 7 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। हालांकि पंजाब में कांग्रेस की सरकार जरुर बनी, लेकिन गोवा में सबसे बड़े दल के रुप में उभरने के बाद भी कांग्रेस की सरकार नहीं बन पाई। ऐसे में अब पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं, वहीं कांग्रेस नेताओं का धैर्य अब जवाब देने लगा है। वर्ष 2013 में जब राहुल गांधी पार्टी उपाध्यक्ष बने। उस दौर में केन्द्र में यूपीए की सरकार थी तो देश के अन्य राज्यों में भी कांग्रेस की सरकार थी। लेकिन आज स्थिति एकदम उल्ट ही देखने को मिल रही है। संसद के साथ प्रदेशों में पार्टी सत्ता से कौसों दूर हो चुकी है। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के बीमार होने के कारण अब राहुल गांधी ही पार्टी के फैसले ले रहे हैं। ऐसे में एक के बाद एक राज्यों में मिल रही हार के चलते अब उन्हें ही जिम्मेदार माना जा रहा है। हालांकि वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस मजबूत बनकर उभरी तो यूपी से 21 सांसदों के जीतने का श्रेय राहुल गांधी को दिया गया। लेकिन 2013 में तत्कालिन पीएम मनमोहन सिंह ने जब खुले शब्दों में कहा कि वे राहुल गांधी के नेतृत्व में काम करने को तैयार है। तभी से पार्टी के बुरे दिन शुरू हो गए। वर्ष 2013 में यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टी के खाते में महज 28 सीटें आई। वहीं पंजाब में अकाली-भाजपा का गठबंधन होने से वहां दोबारा सरकार बन गई। इस हार के पीछे जो कारण गिनाए गए उनमें राहुल गांधी द्वारा अमरिंदर सिंह को सीएम कैंडिडेट घोषित किया जाना भी सामने आया। जबकि गोवा भी हाथ से निकल गया। उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार बेहद नजदीकी अंतर से बनी। इसी वर्ष में गुजरात चुनाव में उन्हें फिर हार का मुंह देखना पड़ा। हालांकि हिमाचल में कांग्रेस की सरकार जरुर बन गई। फिर भी त्रिपुरा, नगालैंड, दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ सरीखे राज्यों में कांग्रेस को करारी शिकस्त मिली। 2014 में पार्टी की किरकिरी हर किसी को याद है। जब 44 सीटों पर जीत मिलने के साथ ही पार्टी प्रमुख विपक्षी दल तक नहीं बन पाई। इसी तरह महाराष्ट्र व हरियाणा से सत्ता गवंा दी सो अलग। यही स्थिति झारखंड और जम्मू-कश्मीर में रही। जहां करारी हार मिलने से पार्टी सत्ता से बाहर हो गई। 2015 में महागठबंधन के चलते जीत मिली लेकिन दिल्ली में तो सूपड़ा साफ हो गया। यहां पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली। 2016 में असम के साथ केरल और पश्चिम बंगाल में हार का मुंह देखना पड़ा। पुडुचेरी में सरकार जरुर बनी। इस स्थिति में अब साफ तौर पर देखने को मिल रहा है कि कांग्रेस पार्टी इन दिनों कौमा में चली गई है। यह स्थिति उसे इस वर्ष के अंत तक होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों में देखने को मिल सकती है। पार्टी हार से किसी प्रकार का सबक लेती नजर नहीं आ रही है। ऐसे में अब उपाध्यक्ष का पद संभाले राहुल गांधी को अध्यक्ष का पद सौंपना कितना विश्वास भरा साबित हो सकता है।
तेज तर्रार नेता की छोड़ नहीं पाए छाप
इन चुनावों में कांग्रेस की जो गत बिगड़ी उससे तो यह साफ हो गया कि कांग्रेस पार्टी को अब राहुल गांधी के नेतृत्व के विषय में विचार करना ही होगा। यूपी में राहुल ने अखिलेश से हाथ मिलाया। उस गठबंधन का खामियाजा सपा को झेलना पड़ा। हालांकि इस दौर में अखिलेश एक युवा नेता के तौर पर जनता के सामने उभरकर आए। जो जनता से उसके स्तर व भाषा के अनुसार बात करता है, उसकी आवाज को पूरजोर तरीके से उठाता है, विरोधियों के आरोपों का सटीक जवाब देता है और सार्वजनिक अवसरों पर आत्मविश्वास से लबरेज होकर सामने आते हैं। ऐसी कुछ स्थिति राहुल गांधी में देखने को नहीं मिली। राहुल अपने भाषण की शैली आज भी पुराने ढर्रे की अपनाए हुए हैं। अपने भाषण में तीखापन और जनता का उसके अनुरुप रुख मोड़ पाने में सफल नहीं हो पाए हैं। ना ही जनता को कोई विजन दे पाए हैं। जिससे अब उनकी नेतृत्व क्षमता पर लोग और पार्टी के नेता सवालिया निशान लगाने हैं। कांग्रेस के नेता दबी जुबान में कह रहे है कि कांग्रेस को जिंदा रखना है तो अब नेतृत्व के बारे में विचार करना होगा। पार्टी के नेता अब प्रियंका गांधी की ओर देखने लगे हैं।

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