-भागसिंह
जयपुर। संसार में एक मां को ममता की मूरत के तौर पर पहचाना जाता है। लेकिन यवतमाल में जन्मी और स्वीडन में पली बढ़ी स्वीडिश नागरिक नीलाक्षी एलिजाबेथ जोरेंडल के मामले में यह बात एकदम विपरित ही नजर आती है। जहां एक मां ने नीलाक्षी को जन्म देने के बाद उसे एक पुणे स्थित एक अनाथ आश्रम में छोड़ दिया। जहां जन्म के तीन साल बाद नीलाक्षी को एक स्वीडन दंपत्ति ने अनाथ आश्रम से गोद ले लिया और उसे अपने साथ स्वीडन ले गए।

हाल ही नीलाक्षी ने एक स्वयंसेवी संस्था के माध्यम से अपनी मां को खोज निकाला तो यह समूचे विश्व में एक चर्चा का विषय बन गया। लोग के दिलों में एक सवाल भी कौंधने लगा कि आखिर क्या एक मां ऐसी भी हो सकती है? जो अपनी ही बेटी को अनाथ आश्रम में छोड़ गई। अपनी नन्हीं सी फूल सी बच्ची को अनाथ आश्रम में छोडऩे से पहले उसकी मां के दिल में क्या ममता ने हिलौरे नहीं मारे होंगे? खुद के स्वार्थ और सुख की खातिर क्या एक मां ऐसा कदम उठा सकती है। ऐसे अनेक सवाल लोगों के जहन में उभरे। लेकिन फिर भी नीलाक्षी को अनाथ आश्रम में छोडऩे को लेकर उसकी मां के सामने उस दौर की चुनौतियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बेहद तंगहाली भरे हालातों के बीच नीलाक्षी की मां व उसके पिता खेतों में मजदूरी कर जीवन यापन कर रहे थे।

इसी बीच नीलाक्षी को जन्म देने से पहले ही उसके पिता की मौत हो गई। जिससे परिवार टूट सा गया। पिता के जाने के कुछ माह बाद ही 1973 में नीलाक्षी का जन्म हुआ। ऐसे में जीवन और भी कष्टमय हो गया। नीलाक्षी के साथ परिवार को संभालना उसकी मां के लिए बहुत भारी पडऩे लगा। जिस पर उसने नीलाक्षी को 3 साल की आयु में अनाथ आश्रम में छोडऩे का निर्णय लिया और उसे पुणे के पं. रामाबाई मुक्ति मिशन में छोड़ दिया। कहा भी जाता है कि एक अकेली नारी के लिए जीवन जीना पहाड़ पर चढऩे जैसे होता है। जहां समाज के तानों के बीच निर्दयी लोगों से बचना मुश्किल भरा होता है। इसी के चलते 1976 में उसकी मां ने दूसरी शादी कर ली।

उधर स्वीडन में जब नीलाक्षी ने होश संभाला तो उसे अपनी जैविक मां की याद सताने लगी। उसे हर पल यही लगता कि आखिर एक बार तो जैसे-तैसे वह अपनी मां को देख ली। इसी को लेकर वह 1990 से लगातार 6 बार भारत आई। लेकिन पता नहीं चल पाया। इस बीच उसने एक स्वयंसेवी संस्था से संपर्क किया और मां से मिलने की अपनी मंशा बताई। जहां संस्था ने नीलाक्षी की मां को यवतमाल के एक अस्पताल से खोज निकाला। जब नीलाक्षी 41 साल बाद अपनी मां से मिलन के लिए भारत आई तो वह थैलेसीमिया से पीडि़त थी और अस्पताल में जीवन और मौत से जूझ रही थी। बरहाल नीलाक्षी ने मां की सेवा का जिम्मा अपने कंधों पर लिया। इस तरह भारत देश की इस बेटी ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि बेटी आज भी बेटों से कम नहीं है।

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