Housing Board

रोटी, कपड़ा और मकान एक आम व्यक्ति की जररूत है। रोटी-कपड़े का जुगाड़ तो वह जैसे-तैसे कर लेता है लेकिन, मकान एक बड़ी समस्या है। महंगाई के कारण शहरी इलाकों में तो मध्यमर्गीय परिवार के लिए स्वयं का मकान बनवाना मुश्किल होता जा रहा है। प्रदेश में आवासों की कमी की समस्या को हल करने के लिए वर्ष 1970 में हाउसिंग बोर्ड की स्थापना की गई थी। अपनी स्थापना से लेकर आज तक 46 साल में बोर्ड ने ढाई लाख लोगों को भी मकान नहीं दिए। जबकि शहरीकरण के चलते राजस्थान में इस वक्त पांच लाख से अधिक मकानों की जरूरत हर साल पड़ रही है। बोर्ड का दायरा भी जयपुर, जोधपुर, कोटा, भिवाड़ी-अलवर समेत 64 शहरों तक ही सिमटा हुआ है जबकि राजस्थान में 175 से ज्यादा शहर है। देखा जाए तो बोर्ड के अपनों ने ही बोर्ड का दायरा नहीं बढऩे दिया। यहां अधिकारियों और कर्मचारियों का गृह जिले से मोह रहा है। स्थिति यह है कि बोर्ड में कई अधिकारी-कर्मचारी एक ही शहर और शाखा में सालों से जमे हुए है। दायरा बढऩे के साथ ही दूसरे शहरों में तैनातगी की संकुचित सोच के चलते बोर्ड के जिम्मेदार अधिकारियों ने दूसरे शहरों में आवासों की मांग एवं उन्हें पूर्ति करने का शायद ही कोई प्रस्ताव तैयार किया हो। यदि कही प्रस्ताव तैयार भी हुआ तो उसे घाटे का सौदा बताकर रद्द करा दिया गया।
बोर्ड की जमीनों पर कब्जों को हटवाने के मामले में भी ढुलमुल नीति रही है। उदाहरण के तौर पर जयपुर के नजदीक चौमूं में दो दशक पहले आवासीय योजना लांच की गई थी। जमीन अवाप्त कर ली गई और आवंटियों से राशि भी ले ली लेकिन, मौके पर से कब्जा नहीं हटाया जा सका। बाद में राजनीति दबाव में आकर इसे रद्द कर दिया गया। बीकानेर के मुक्ताप्रसाद नगर में बोर्ड की अवाप्तशुदा 200 बीघा से ज्यादा अतिक्रमण का शिकार है। यहां पर राजनीतिक दबाव के चलते बोर्ड अपनी जमीन मुक्त नहीं करा रहा है। बीकानेर में ही शिवबाड़ी में भी बोर्ड की जमीन पर कब्जे हो रहे है। जयपुर में ही इंदिरा गांधी नगर विस्तार के लिए जमीन आवाप्त है लेकिन, धरातल पर कोई काम नहीं हुआ। देखा जाए तो जहां कब्जे हो रहे है उन्हें हटाने के लिए कोई दिलचस्पी नहीं ली जा रही है। हाउसिंग बोर्ड पहले अतिक्रमण हटाने का अधिकार नहीं होने का राग अलापता रहा। यह अधिकार मिले भी पांच साल से ज्यादा हो गए लेकिन, अब तक इसका उपयोग ही नहीं हुआ। स्थिति यह है कि बोर्ड में अतिक्रमण हटाने के लिए प्रवर्तन शाखा तक नहीं है। फिलहाल जिला प्रशासन एवं स्थानीय निकाय की मदद से ही अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई संभव है। लेकिन, स्थिति यह है कि मदद के लिए कागज एक विभाग से दूसरे विभाग में ही चलते रहते है और कार्रवाई किसी न किसी बहाने टलती रहती है।
रजिस्ट्रेशन के बाद भी मकान नहीं
हाउसिंग बोर्ड की बदनामी की एक बड़ी वजह समय पर मकान नहीं दिया जाना है। इसका सीधा असर उपभोक्ता की जेब पर पड़ता है। हाउसिंग बोर्ड आवासों का आवंटन दो तरीके से कर रहा है। पहला तो पंजीकरण करके तथा दूसरा स्ववित्त पोषित योजना में। बोर्ड की विभिन्न योजनाओं में अभी भी करीब 20 हजार पंजीकृत आवेदक ऐसे है जिन्हें आशियाना नहीं मिला है। इस लेटलतीफी के चलते अधिकांश आवंटी अपने पंजीकरण दलालों के माध्यम से बेच चुके हैं। दूसरा, स्ववित्त पोषित योजना के तहत आवास आवंटन किया जाता है। इस व्यवस्था के तहत आवास आवंटन में देरी उपभोक्ताओं का बजट बिगाड़ रही है। आवेदन के समय बताई अनुमानित कीमत और कब्जा सौंपने के समय वसूली जाने वाली कीमत में रात-दिन का अंतर होता है। स्ववित्त पोषित योजनाओं में आवेदन के वक्त जिस अल्प आय वर्ग मकान की कीमत 15 लाख रूपए बताई जाती है, वह कब्जा सौंपे जाने तक तीन-चार साल में 18 लाख रूपए तक पहुंच जाती है। जबकि नियम ये है कि आवास का कब्जा आवेदन के दो साल में मिल जाना चाहिए। निर्माण में देरी की वजह ठेकेदार और बोर्ड की नीतियां होती है लेकिन, उपभोक्ता की जेब कटती है और उसका बजट बिगड़ जाता है। ऐसे में वह अपने रजिस्ट्रेशन अथवा आवंटन दलालों के माध्यम से बेचने को मजबूर हो रहे है। दलाल इन मकानों को अपना फायदा जोड़कर ऊंची कीमतों पर बेच रहे है।
पड़ोसी का प्लास्टर उखड़ जाता है
घटिया निर्माण की पोल की हाउसिंग बोर्ड की कई दफा खुल चुकी है लेकिन, बोर्ड के इंजीनियरों पर जूं तक नहीं रेंगती। स्थिति यह है कि स्वतंत्र आवासों की जितनी भी योजनाएं है उनमें अधिकांश आवंटियों ने आशियानें का कब्जा लेने के बाद मोटा पैसा मकान की मरम्मत पर खर्च किया है। बहुमंजिला इमारतों में तो स्थिति और भी खराब है। कहा जाता है कि फ्लैट की दीवार में कील ठोंके तो उससे पड़ोस के फ्लैट का प्लास्टर उखड़ जाता है। इनमें सीलन की समस्या और आवंटन के बाद रखरखाव को लेकर रहवासी परेशान रहते है। जबकि बोर्ड नियमानुसार रखरखाव के पेटे राशि लेता है। बोर्ड की योजनाओं में पार्क की जगह छोड़ दी जाती है लेकिन, उनमें विकास नहीं कराया जाता। प्रदेशभर में ऐसे हजारों पार्क गिनाए जा सकते है जो केवल नाम के ही पार्क है। घटिया निर्माणों के चलते सैकड़ों फ्लैट व भूखण्डों को आवंटी पसंद नहीं कर रहे हैं और कब्जा लेने से इंकार कर चुके हैं। जयपुर के प्रताप नगर में ऐसे दर्जनों फ्लैट भूतहा बंगले के नाम से मशहूर है, जिनका लंबे समय तक कोई खरीदार नहीं मिला। बाद में बोर्ड ने मोटी रकम इन्हें सुधारने की कंसलटेंसी पर खर्च की। ऐसी ही स्थिति अन्य योजनाओं में है। जिनमें बिना बिके फ्लैटों को बेचने के लिए बोर्ड ने नीलामी भी निकाल रखी है।
हजारों कमाने वाला भी नहीं खरीद सकता
हाउसिंग बोर्ड की जयपुर में स्थित योजना में मध्यम आय वर्ग ‘अÓ का स्वतंत्र आवास या फ्लैट करीब 40 लाख रुपये का मिलता है। लोन लेकर इसे खरीदने के लिए व्यक्ति के पास करीब आठ लाख रुपये की मार्जिन मनी जरूरी है। शेष 32 लाख रुपये का लोन चुकाने के लिए उसे हर महीने करीब 30 हजार रूपया महीना किस्त चुकाना होगा। एक मध्यमवर्गीय परिवार की आमदनी 30 हजार रुपये महीना से अधिक नहीं होती। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह ये मकान कैसे खरीदेगा? जानकारों का कहना है कि हाउसिंग बोर्ड के मकानों की कीमत ज्यादा होने का एक बड़ा कारण प्रशासनिक खर्च है। नियमानुसार 10 से 20 फीसदी प्रशासनिक खर्च होना चाहिए लेकिन, बोर्ड में अनाप-शनाप खर्च और लेटलतीफी के कारण यह खर्च 40 फीसदी तक पहुंच रहा है। इसे कम करने के लिए कई बार घोषणाएं हुई लेकिन, वे थोथी साबित हुई है।
चांदी कूट रहे हैं दलाल
हाउसिंग बोर्ड में दलालों की जमकर घुसपैठ है। किसी भी योजना के लंबित रहने का ये जमकर फायदा उठा रहे है। जयपुर की ही बात करे तो सांगानेर की प्रतापनगर, मानसरोवर जैसी आवासीय योजनाओं में लंबित सैकड़ों पंजीकरणों को दलालों ने खरीद रखे थे। पहले तो साजिशपूर्वक बोर्ड से इन्हें रद्द करने की कार्रवाई करवाई गई और फिर उन्हें औने-पौने दामों पर खरीद लिया। बाद में इन्हें बहाल करा लिया गया। इसी तरह सीडमनी या फिर अन्य कारणों से रद्द किए आवंटनों की बहाली में खेल चलता है। आवंटी को डराने के लिए आवंटन रद्द करने का नोटिस जारी किया जाता है। आवंटियों को जारी होने वाले इस तरह के नोटिसों की जानकारी दलालों को पहले से रहती है। दलाल आवंटी से उस आवंटन को खरीदने के संपर्क करना शुरू कर देते है। कई मामलों में तो आवंटी कार्रवाई के डर से उसे सस्ते में बेच भी देते है। बाद में दलाल उसे नोटिस को रद्द कराकर महंगे दामों पर आवंटन बेच देेते है। इस खेल में बोर्ड के कई कर्मचारी और अधिकारी भी लिप्त है।

कई बड़े घोटाले हो चुके हैं बोर्ड में
हाउसिंग बोर्ड की योजनाओं में आवास आवंटन लॉटरियों में मिलीभगत से आवासों का आवंटन करने, निर्माण में घटिया सामग्री का इस्तेमाल, स्टेशनरी खरीद में घोटाला सहित कई मामले सामने आए हैं। कुछ लोगों पर कार्रवाई भी हुई लेकिन, स्वायत्त शासी संस्था होने से अधिकांश मामलों में कार्रवाई केवल खानापूर्ति तक ही सीमित रही। एक बार तो हाउसिंग बोर्ड के कुछ अधिकारियों और कर्मचारियों ने बाहरी लोगों से मिलीभगत कर फर्जी तरीके से बोर्ड के एक ऐसे आवास को आवंटित करा दिया जो किसी को दिया ही नहीं था। इंदिरा गांधी नगर स्थित इस मकान में बोर्ड का आवासीय अभियंता का ऑफिस था। खुलासा होने पर इस मामले में दोषी लोगों के खिलाफ मामूली कार्रवाई कर रफा-दफा कर दिया गया। इसी तरह हाउसिंग बोर्ड के एक अध्यक्ष का कार्यकाल तो काफी चर्चित रहा है। रीयल एस्टेट की बड़ी कम्पनी संचालित करने वाले परिवार से तालुक रखने वाले इस अध्यक्ष के कार्यकाल के दौरान जयपुर में बोर्ड ने बहुमंजिला आवासीय योजनाएं ऐसी जगह लांच की जहां आसपास इस रीयल एस्टेट कम्पनी की योजनाएं पहले सी थी। बोर्ड ने अपनी कीमतें इस कम्पनी की योजनाओं से ज्यादा रखी और प्रस्तावित योजना के नाम पर आसपास क्षेत्र का विकास कराया। बोर्ड की योजना लांच होने की साख का फायदा कम्पनी ने उठाया। बोर्ड की योजनाएं तो विफल रही लेकिन, प्राइवेट बिल्डरों का फायदा हुआ। इसी तरह एक अन्य अध्यक्ष के कार्यकाल के दौरान विभिन्न संस्थाओं को बोर्ड की योजनाओं में सस्ती जमीन आवंटन को लेकर सवाल उठ चुके हैं। अप्रवासी राजस्थानियों के लिए लांच की गई राजआगंन योजना में हुए अनाप-शनाप खर्च का भार दूसरी सामान्य योजनाओं के आवंटियों पर पड़ा। इस योजना के शुरूआत में कई साल तक बोर्ड मकान ही नहीं बेच पाया था।
नई योजनाओं के लिए सर्वे तक नहीं
पिछले कुछ साल में हाउसिंग बोर्ड ने स्वतंत्र आवासों की नई योजना के लिए जमीन अवाप्त नहीं की है। यहां तक कि कभी यह भी सर्वे नहीं कराया कि राजस्थान के किन शहरों में हाउसिंग की डिमांड है और बोर्ड वहां योजनाएं लाता है तो कितनी सफल रहेगी। अब तो स्थिति यह रह गई है कि मौजूदा योजनाओं में ही बहुमंजिला आवासीय परिसर बनाकर फ्लैट आवंटित कर रहा है। यह भी केवल जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, भिवाड़ी, अलवर तक ही सीमित है। जबकि छोटे शहरों में जमीन की भी उपलब्धता है और वहां शहरीकरण के कारण आवासों की भी मांग है। उदाहरण के लिए सीकर के खाटूश्याम जी, सालासर, कोटपूतली, बहरोड़, किशनगढ़, जैसे कई कस्बे एवं शहर ऐसे है जहां प्राइवेट बिल्डर एवं डवलपर्स की योजनाएं है लेकिन, बोर्ड ने कभी वहां ध्यान ही नहीं दिया।
बिल्डरों के फायदे की कवायद
हाउसिंग बोर्ड के पास इस समय 500 करोड़ रुपए से ज्यादा की जमीन है। 150 करोड़ रुपए नगद बैंकों में एफडी के तौर पर जमा है। जमीनें जयपुर, जोधपुर, नागौर, कोटा, भीलवाड़ा, हनुमानगढ़, धौलपुर, भिवाड़ी, अलवर और उदयपुर में है। सबसे कीमती जमीन जयपुर, भिवाड़ी, जोधपुर की है। अकेले जयपुर में बोर्ड के भवन की कीमत 200 करोड़ रुपए के आसपास है। बोर्ड के कर्मचारियों की माने तो बोर्ड अपने खुद की संपत्तियों और मकान बना कर बेचे तो 20 साल तक खुद के खर्चे पर चल सकता है। कर्मचारी नेताओं और अफसरों का कहना है कि बोर्ड को बंद करने की तैयारी के पीछे निजी क्षेत्र के बिल्डरों और रियल स्टेट कंपनियों को फायदा पहुंचाना है। जयपुर में विकसित हो चुकी कालोनियां मानसरोवर, प्रतापनगर, जगतपुरा में बोर्ड की करोड़ों रुपए की जमीन है। अलवर और भिवाड़ी भी दिल्ली के नजदीक और एनसीआर में होने की वजह से सबसे ज्यादा आकर्षक है। निजी क्षेत्र किसी भी तरीके से इन जमीनों को हथियाना चाहता है। अफोर्डेबल हाउसिंग स्कीम के नाम पर ये जमीनें इन्हें आसानी से मिल सकती है। रीयल एस्टेट के बड़े दिगजों की निगाहें भी बोर्ड की जमीनों पर लगी हुई है। इन सबके बीच हाउसिंग बोर्ड के अधिकारी भी इस स्थिति के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। उन्होंने शुरू से बोर्ड को दूध देने वाली गाय की तरह दुहा है। सामाजिक संस्थाओं और स्कूलों को जमीनें देने में बंदरबाट की गई। बोर्ड के मकानों की क्वालिटी किस तरह की होती है यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। बोर्ड की हर योजना में इंजीनियर्स का कमीशन बंधा होना किसी से छुपा हुआ नहीं है। आज स्थिति यह है कि निजी बिल्डर दो बेडरूम का फ्लैट 20 से 25 लाख में दे रहा है जबकि बोर्ड के मकानों की लागत 30 से 35 लाख हो चुकी है। जिनको मकानों का आवंटन हो चुका है वे भी रूचि नहीं दिखा रहे हैं।
कांग्रेस व कर्मचारी संगठनों का विरोध
रोडवेज, आरटीडीसी, बिजली निगम व बिजलीघरों, हाउसिंग बोर्ड के निजीकरण को लेकर जहां कर्मचारी संगठन लामबंद हो चुके हैं और सड़क पर उतर आए हैं, वहीं इस मसले पर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी विरोध दर्ज करवा रही है। सरकार के इन फैसलों को जनता और कर्मचारियों के विरोध में बता रही है। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलेट, नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी, उपनेता रमेश मीणा ने इन सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण करने पर सवाल भी उठाए हैं। उन्होंने कहा कि छबड़ा और काली सिंध ऐसी परियोजनाएं है जिनके संचालन के तो दो साल भी अभी पूरे नहीं हुए हैं।
क्या यह समझा जाए कि सरकार भविष्य में कोई बिजली उत्पादन परियोजना नहीं लाएगी। सरकार निजीकरण का फैसला करने से पहले स्पष्ट करे कि आखिर उसकी ऊर्जा नीति क्या है। बिजली प्रसारण और वितरण में 45 फीसदी छीजत है। सरकारी कंपनियां इसमें कमी लाने में नाकाम रही है। क्या सरकार की बिजली प्रसारण के क्षेत्र में भी विनिवेशन की कोई योजना है इसका खुलासा करें। संपूर्ण बिजली क्षेत्र में संचालन की दृष्टि से बिजली वितरण सबसे अधिक परेशानी वाला क्षेत्र माना गया है वहीं उत्पादन इकाइयों का संचालन किसी भी निजी उद्यमी के लिए सबसे ज्यादा फायदे का सौदा हो सकता है। कांग्रेस नेताओं ने हाउसिंग बोर्ड को बंद करने संबंधी मुख्यमंत्री के बयान पर भी आश्चर्य जताते हुए कहा कि बोर्ड को बंद करने से निजी बिल्डरों को फायदा पहुंचेगा और जनता को सस्ते और सुविधायुक्त आवास के सपने को धक्का लगेगा।

LEAVE A REPLY