– राजेन्द्र राज
जयपुर। देश में एक बार फिर यह धारणा बलवती होने लगी हैं कि जनहित के मामले में सरकार के मुकाबले न्यायालय अधिक संवेदनशील है। अफसरशाही और राजनेताओं के दुष्कृत्यों पर लगाम लगाने में जनप्रतिनिधियों की तुलना में न्यायालय अपनी जिम्मेदारी ज्यादा सार्थकता से निभा रहा है। इसका प्रमाण हाल ही उच्चतम न्यायालय ने एक फैसले से मिलता है। फैसले में न्यायालय ने शराब के कारोबार को लेकर राजनेताओं और अधिकारियों पर गम्भीर टिप्पणी की है। वह सरकार और उनके नुमाइन्दों के लिए शर्म का विषय होना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने एक याचिका पर दिए फैसले में कहा, ‘देश में शराब लॉबी बहुत सशक्त हैं। इस कारोबार से मंत्री, अधिकारी, उत्पाद व आबकारी विभाग भी खुश है। राज्य सरकारों को भी राजस्व मिल रहा है इसलिए वह भी प्रसन्न है। लेकिन, सरकारों को समाज के हितों को ध्यान में रखकर न्यायालय में अपना पक्ष रखना चाहिए।‘ न्यायालय की यह टिप्पणी सरकारों के कामकाज के तरीकों पर एक गम्भीर आक्षेप है कि उनकी सोच समाज हित में नहीं है। यह जानते हुए भी कि शराब से समाज का विकास नहीं, विनाश ही होगा। इस सबके बावजूद सरकार की मंशा इस कारोबार से कैसे अधिक राजस्व प्राप्त हो, इसके प्रति रहती है। और जब कभी शराब से कोई हादसा हो जाए तो दिलासा देने के लिए लाख – डेढ़ लाख रुपए का मुआवजा देकर पीड़ित परिवार को चलता कर दिया जाए। क्या सरकार के ऐसे कृत्यों को समाज हित में माना जाएगा, कदापि नहीं। लेकिन, सरकार की कार्यशैली ऐसी ही है। यह सर्वविदित है कि अधिकतर अपराधों के पीछे शराब ही होती है। अपराधियों के पकड़े जाने पर जांच में खुलासा होता है कि दुष्कर्म, सड़क हादसे और अन्य दुष्कृत्यों में शराब पीकर घटना को अंजाम दिया गया है। इसीलिए राष्ट्र्पिता महात्मा गांधी ने कहा था कि शराब सभी अपराधों की जननी है। उन्होंने अपने अनुभव से यह मान लिया था कि समाज की सबसे बड़ी समस्या शराब है। इस कारण उन्होंने बड़ी गम्भीरता से कहा था, ‘अगर मैं एक घंटे के लिए भी तानाशाह बन जाउु तो बिना मुआवजा दिए शराब के सभी कारखानों और दुकानों को बंद करवा दूंगा।‘ इस मुद्दे पर गांधी जी की गम्भीरता इससे भी झलकती हैं कि उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान भी शराब की दुकानों पर सत्याग्रह करवाए थे।
आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था से अपेक्षा थी कि सरकार सबसे उुपर जनहित को रखेगी। लेकिन, दुर्भाग्य का विषय है कि आजादी के 70 वर्ष बाद भी जनहित के मुद्दे सरकार की सोच में प्रथम वरीयता पर नहीं हैं। तभी मानने और कहने के बाद भी सरकारें शराब के कारोबार का मोह नहीं छोड़ पा रही है। हाल ही बिहार सरकार ने इस मामले में अपने चुनावी वादे को पूरा करते हुए राज्य में शराबबंदी लागू कर दी है। इससे पहले केरल सरकार ने भी ऐसा कदम उठा कर शराब कारोबारियों को बोरिया बिस्तर बांधने के लिए मजबूर कर दिया था। देश में गुजरात राज्य इस मामले में आदर्श राज्य है, जहां उसकी स्थापना से ही शराबबंदी है। राजस्थान में भी शराबबंदी लागू हो, इसके लिए सतत प्रयास जारी है। पिछले साल इस मांग को लेकर पूर्व विधायक गुरुशरण छाबड़ा जयपुर में आमरण अनशन पर बैठे थे। संवेदनहीन सरकार ने उनसे वार्ता तक नहीं की और वे शराब बंदी को लेकर शहीद हो गए। राज्य में शराबबंदी के मुद्दे पर शहीद होने का यह पहला मामला था। शराबबंदी के इतिहास में छाबडा का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा।
राजस्थान सहित देश भर में शराबबंदी को लेकर आंदोलन करने वाले समाजसेवियों के लिए उच्चतम न्यायालय का हाल ही एक फैसला राहत देने वाला है। न्यायालय ने कहा है कि एक अप्रेल 2017 से राष्ट््रीय राजमार्गों – हाइवे के आसपास 500 मीटर तक कोई शराब की दुकान नहीं होगी। फैसले में यह भी साफ किया गया है कि जिनके पास लाइसेंस हैं, वे भी 31 मार्च 2017 के बाद हाइवे के 500 मीटर के दायरे में शराब नहीं बेच सकेंगे। यह फैसला देश भर में लागू किया जाएगा। फैसले में यह भी स्पष्ट किया गया है कि राजमार्गों के किनारे लगे शराब से संबंधित सारे विज्ञापन, होर्डिंग्स और साइन बोर्ड हटाए जाएंगे। इसकी निगरानी का जिम्मा राज्यों के मुख्य सचिव और पुलिस प्रमुखों का होगा। देश में सालाना करीब डेढ़ लाख लोगों की मौत सड़क दुर्घटनाओं के चलते होती है। निश्चित ही उच्चतम न्यायालय का यह फैसला हाइवे पर होने वाले सड़क हादसों में कमी लाएगा।
– लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।