जयपुर। राज्य सरकार ने सीआरपीसी, 1973 और आईपीसी, 1860 में संशोधन के लिए (राजस्थान संशोधन) अध्यादेश, 2017 जारी किया है। जिसके तहत जज, मजिस्ट्रेट एवं लोकसेवकों के खिलाफ परिवाद पर प्रसंज्ञान अथवा पुलिस जांच कराने से पहले अभियोजन स्वीकृति की अनिवार्य कर दिया गया है। इस आदेश के बाद कोर्ट में प्रस्तुत ऐसे इस्तगासों या परिवादों को मजिस्ट्रेट तब तक प्रसंज्ञान अथवा अनुसंधान के लिए प्रेषित नहीं कर सकेंगे जब तक कि सक्षम अधिकारी द्वारा अभियोजन स्वीकृति जारी नहीं की गई हो। हालांकि, राज्य सरकार द्वारा जारी किये गये इस आदेश में इसके लिए अधिकतम समय सीमा छह महीने रहेगी।  राज्य सरकार का यह अध्यादेश हालांकि, उन्हीं मामलों में लागू होगा, जिनमें लोक सेवक द्वारा किया गया कार्य पदेन कर्तव्यों के निर्वहन से संबंधित रहा हो। सरकारी अथवा विभागीय निर्णयों से असंतुष्ट लोग कोर्ट में परिवाद दायर कर देते हैं। इस अध्यादेश के बाद परिवाद के कोर्ट में आने पर लोकसेवक सरकार या विभाग, अभियोजन स्वीकृति के जरिए अपना पक्ष रख सकेंगे।

अध्यादेश में एक प्रावधान यह भी, पहचान उजागर करने पर 2 साल की सजा का प्रावधान
राज्य सरकार के अध्यादेश में यह भी बताया गया है कि कोई भी व्यक्ति ऐसे किसी न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट या किसी लोक सेवक, जिसके विरुद्ध इस धारा के अधीन कोई कार्यवाही लंबित है, उनका नाम, पता, फोटो, कुटुम्ब के ब्यौरे या अन्य कोई विशिष्टियों, जो उसकी पहचान को प्रकाशित या प्रचारित नहीं करेगा। जब तक कि उसकी स्वीकृति जारी नहीं की गई हो या जारी की गई समझी गई हो। अध्यादेश के अनुसार जो कोई भी व्यक्ति लोक सेवकों की पहचान प्रकट करने का कार्य करता है, उस पर दो वर्ष के लिए कारावास और जुमार्ना लगाया जा सकेगा। राज्य सरकार द्वारा जारी किये गये इस अध्यादेश के बाद जहां लोक सेवकों को राहत की सांस मिली है, वहीं जानकारों का मानना है कि इस प्रकार से आदेश से लोक सेवकों की मनमानी बढ़ेगी और उन पर कार्यवाही कराना भी संभव नहीं हो पायेगा।

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