Yug maker Sawai Jai Singh: 330th birth anniversary of Sawai Jai Singh, the era maker of Jaipur.

-राकेश जैन
सवाई जयसिंह आरम्भ से ही विद्या-प्रेमी और धर्मानुरागी थे । जयसिंह ने बचपन में ही अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय देकर औरंगजेब जैसे कूटनीतिज्ञ और कट्टर बादशाह को भी प्रभावित कर दिया था । औरंगजेब ने अनुभव कर लिया था कि साम्राज्य की सत्ता बनाये रखने में जयसिंह का सहयोग प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक है । सवाई राजा जयसिंह (द्वितीय ) का जन्म 3 नवम्बर 1688 को आमेर के महलों में राजा बिशनसिंह की राठौड़ रानी इन्द्रकुंवरी के गर्भ से हुआ था । उस समय राजा बिशनसिंह की आयु केवल 16 वर्ष थी अत: स्वाभाविक है कि राजा जयसिंह की माता की आयु और भी कम रही होगी । इस बालक (सवाई जयसिंह ) का मूल नाम विजयसिंह था और छोटे भाई का नाम जयसिंह था । कहा जाता है कि जब विजयसिंह आठ वर्ष का था, उसे औरंगजेब से मिलवाया गया । जयसिंह अप्रेल 1696 में बादशाह के समक्ष प्रस्तुत हुआ । उसकी परीक्षा करने के विचार से बादशाह औरंगजेब ने उसके दोनों हाथ पकड़कर पूछा ‘अब तू क्या कर सकता है? ‘ बालक विजयसिंह ने बुद्धिमानी के साथ तुरन्त उत्तर दिया – ‘अब तो मैं बहुत कुछ कर सकता हूँ, क्योंकि जब पुरुष औरत का एक हाथ पकड़ लेता हैं, तब उस औरत को कुछ अधिकार प्राप्त हो जाता है । आप जैसे बड़े बादशाह ने तो मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए हैं, अतएव मैं तो सब से बढ़कर हो गया ।’ उसके उत्तर से प्रसन्न होकर बादशाह ने कहा कि यह बड़ा होशियार होगा, इसका नाम सवाई जयसिंह (अर्थात मिर्जा राजा जयसिंह से बढ़कर ) रखना चाहिये । तदनुसार बादशाह ने उसका नाम जयसिंह रखा और उसका असली नाम विजयसिंह उसके छोटे भाई को दिया । परन्तु तत्कालीन कागजातों से यह स्पष्ट है कि जयसिंह को सवाई की उपाधि विधिवत रूप से पहली बार फर्रुख़सियर के समय में सैयद हुसैन अली के प्रयत्नों से जुलाई 1713 में मिली थी । वकील जगजीवनदास पंचौली ने पहली बार 12, जुलाई 1713 की रिपोर्ट में बादशाह फर्रुख़सियर द्वारा सवाई का पद दिये जाने की सूचना जयसिंह को दी थी । इससे यह ज्ञात होता है कि औरंगजेब का जयसिंह को ‘सवाई’ कहने का प्रसंग तो प्रचलित हो गया था, परन्तु सरकारी तौर से यह पदवी जयसिंह को नहीं मिली थी ।

21 सितम्बर, 1743 जयसिंह के महाप्रयाण तक जयसिंह शान्ति-स्थापना और विभिन्न संघर्षों के उपशमन में मध्यस्थ की सफल भूमिका निभाते रहे । विद्या-व्यसनियों में जयसिंह का स्थान महान रहा है । नियामक, ज्योतिषी, नगर-नियोजक के रूप में इन्होंने महती ख्याति अर्जित कर ली थी । भारत के प्रायः प्रत्येक प्रान्त में जयसिंह ने सरायें, धर्मशालाएं तथा बाजारों का निर्माण कराया । इनका गणित और ज्योतिष का ज्ञान बड़ा गहन था । पं. जगन्नाथ सम्राट के एतद् विषयक ज्ञान से प्रभावित होकर ये उन्हें गुरु बनाकर आमेर लाये और वर्तमान जयपुर की नींव उन्हीं के ज्योतिष-ज्ञान के आधार पर रखवाई । मथुरा, बनारस, उज्जैन, काशी, दिल्ली और जयपुर की वेधशालाएँ भी इन्ही सम्राटजी के सहयोग से निर्मित कराई । विदेशी यूरोपीय एवं मुस्लिम ज्योतिर्विदों के विचारों का भी इन्होंने अध्ययन किया और कुछ स्वयं की सूझ से, कुछ सम्राट जगन्नाथ के सहयोग से धातुमय यन्त्रों का निर्माण कर बिल्कुल सही फल देने वाली प्रक्रिया निकाली ।

सवाई जयसिंह संस्कृत के भी अद्वितीय हितकारी थे । अत: भाषा और संस्कृत के विद्वानों को सदैव समादर देते थे । इन विद्वानों को ये जयपुर लाये और ‘ब्रह्मपुरी’ नाम की नई काॅलोनी में उन्हें बसाया गया । ये विद्वान महाराष्ट्र, तैलङाना, वाराणसी आदि स्थानों के थे । इन्ही में जगन्नाथ सम्राट, रत्नाकर पुण्डरीक, श्रीकृष्ण भट्ट कवि कलानिधि और बहुत से अन्य लोग थे ।
इन्ही जयसिंह ने विद्याधर चक्रवर्ती के साथ नगर-निर्माण का सबसे प्रथम मानचित्र बनाने की प्रक्रिया अपनाई । अंग्रेजी, लैटिन, जर्मनी, फ्रांच आदि अनेक भाषाओं के उपयोगी साहित्य को अध्ययन का विषय बनाया, संरक्षण दिया ।यूरोप की प्रकाशित पुस्तकें जिनमें एक लैटिन शब्दकोष, सीमैन का भौतिकी पर लिखा लैटिन भाषा का प्रबंध और ज्ञान-मार्ग (पाथवे आफ नाॅलेज ) आदि ग्रन्थों का संग्रहण किया ।
इस प्रकार राजनीति, युद्ध-कला, ज्योतिष शास्त्र एवं गणितज्ञान एवं नगर-निर्माण आदि विविध क्षेत्रों में इनका व्यक्तित्व इनकी समसामयिक अन्य विभूतियों में अलग ही उभरा और निखरा हुआ दिखाई देता है । इनकी योग्यता और तद्जन्य उपलब्धियां इतिहास की आज भी धरोहरें बनी हुई है ।

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