कृपणपाल करुणा समुद्र रामानुज सम नहीं बियो
 जयपुर। वैष्णवों की प्राचीनतम परम्परा में अन्यतम श्रीसंप्रदाय की सुदृढ शास्त्रीय भित्ति के निर्माता  जगद्गुरु रामानुजाचार्य का जन्म सहस्राब्दी वर्ष कब शुरू हुआ, इसकी खास चर्चा नहीं हुई। यह दु:खद आश्चर्य है कि भारतीय राजनीति के महासागर में चंद हंस ही ऐसे हैं, जो रामानुजाचार्य का महत्व समझते हैं। आप जानते हैं कि आचार्य रामानुज भारतीय परंपरा के मेरुदंड हैं। इसी वर्ष के बीच में उज्जैन में हुए सिंहस्थ कुंभ के संत समागम में वे जरूर याद किए गए। यह सुयोग रहा कि उनका जन्मोत्सव तब आया, जब कुंभ पर्व जारी था। वहां उन पर वैचारिक और शास्त्रीय संगोष्ठियां हुई। चंद पुस्तकें प्रकाशित हुई। लेकिन रामानुजाचार्य जैसे अमर आचार्य के हिमालयी विराट् व्यक्तित्व को जानने के लिए ये बहुत थोड़ा है। इसी बीच यह आनंदप्रद वृत्तान्त है कि दिल्ली में इन्दिरा गांधी राष्ट्रिय कला केन्द्र इस कमी को पाटने का अकादमिक प्रयास कर रहा है। आप जानते हैं कि इन्दिरा गांधी राष्ट्रिय कला केन्द्र भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय का एक स्वायत्तशासी निकाय है।  जाने-माने लेखक, पत्रकार तथा सम्पादक पद्मश्री रामबहादुर राय इस केंद्र के अध्यक्ष हैं। उन्होंने इस केंद्र के माध्यम से रामानुजाचार्य के स्मरणात्मक प्राकट्य को जन-गण-मन में प्रसारित करने का बीड़ा उठाया है। इसके लिए एक अंतर्राष्ट्रिय सम्मेलन का आयोजन सात अक्टूबर को हो हुआ। जिसमें अनेक विद्वान् जुटे और उन्होंने ‘आचार्य रामानुज का संसार’ विषय पर विचार रखे। जो विद्वान् यहाँ आए, उनमें लक्ष्मीताताचार्य जैसे बड़े नाम हैं। एमए आलवार और वरदराज समेत अनेक विद्वानों ने रामानुजाचार्य पर केन्द्रित अनेक पक्षों पर अपने व्याख्यान दिए। यह कम बात नहीं कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी दिन भर गोष्ठी में मौजूद रहे और विशिष्टाद्वैत वेदान्त पर बोले भी। इस संगोष्ठी के सागर मंथन से जो अमृत निकला वह यह था कि रामानुजाचार्य भारत के पिछले एक हज़ार साल के सांस्कृतिक इतिहास में सबसे बड़े नायक हैं।
भारत के अमर भक्ति इतिहास में अप्रतिम साधक रामानुजाचार्य का जन्म सहस्राब्दी वर्ष 12 मई से शुरू हुआ है। उनका जन्म 1016 ईस्वी में तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदूर में हुआ। वे संस्कृत और तमिल परंपरा के मिलन बिंदु हैं। उन्होंने समाज में ऊंच-नीच और झोपड़ी-महल के बीच समानता के सेतु बनाए। कठोर धार्मिक क्रियाओं को लोगों के लिए सरल और सहज बनाया। ऐसा करते हुए वे अपने पूरे काल में तीन मोर्चों पर युद्धरत रहे। अपनी परंपरा और समसामयिक समस्याओं में सेतु बनना पहला मोर्चा है। वेदांत ब्रह्मसूत्रों को जीवन की जटिलताओं से जोडऩा दूसरा और भक्ति को आम लोगों के लिए ईश्वर प्राप्ति का आसान तरीका बनाना तीसरा मोर्चा है। इस तरह उनका पूरा जीवन युद्धरत दिखाई देता है, जिसका संकेत रामधारीसिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में किया है। वे बताते हैं कि ‘सामाजिक समता की दिशा में तत्कालीन ब्राह्मण जहां तक जा सकता था, रामानुज वहां तक जाकर रुके। उनके संप्रदाय ने लाखों शूद्रों और अंत्यजों को अपने मार्ग में लिया, उन्हें वैष्णव-विश्वास से युक्त किया और उनके  आचरण धर्मानुकूल बनाए और साथ ही ब्राह्मणत्व के नियंत्रणों की अवहेलना भी नहीं की।’
भक्ति सिद्धांत को मजबूत शास्त्रीय आधार प्रदान कर उसके वेद प्रतिपादित होने की पहले-पहल स्थापना रामानुजाचार्य ने की। ‘पद्मपुराण’ उन्हें भगवान विष्णु की शय्या शेष का अवतार कहता है। इसका संकेत चार शताब्दी पहले भक्त चरित्र के सर्वश्रेष्ठ द्रष्टा और गायक नाभादास ने ‘भक्तमाल’ में किया है। संत साहित्य के प्रामाणिक विद्वान् ‘भक्तमाल’ का रचना 1600 ईस्वी के आसपास तथा रचना स्थल रैवासा (सीकर) तथा वृन्दावन मानते हैं। यह भक्ति परम्परा, उसके विकास तथा भक्तों के जीवन को जानने के लिए सबसे काम का दस्तावेजी ग्रन्थ है। नाभादास ने रामानुजाचार्य के लोकोत्तर व्यक्तित्व और अदम्य कृतित्व को सूत्रात्मक रूप से प्रकट करते हुए लिखा है-
सहस्र आस्य उपदेस करि जगत उद्धरण जतन कियो
गोपुर ह्वै आरूढ़ उच्च स्वर मन्त्र उचार्यो।
सूते नर परे जागि बहत्तरि श्रवणनि धार्यो॥
तितनेई गुरुदेव पधति भई न्यारी न्यारी।
कुरुतारक शिष्य प्रथम भक्ति वपु मंगलकारी॥
कृपणपाल करुणा समुद्र रामानुज सम नहीं बियो।
सहस्र आस्य उपदेस करि जगत उद्धरण जतन कियो॥ (31)
यह अल्पज्ञात तथ्य है कि ‘भक्तमाल’ पर कालान्तर में जो टीकाएं हुईं, उनमें माध्वगौडेश्वर वैष्णव सम्प्रदाय के सुख्यात संत-कवि श्रीप्रियादास के द्वारा लगभग 1769 ईस्वी में लिखी ‘भक्तिरसबोधिनी’ टीका सर्वाधिक प्रसिद्ध तथा प्रामाणिक मानी जाती है। वे आचार्य रामानुज के बारे में लिखते हैं-
आस्य सो बदन नाम, सहस हजार मुख, शेष अवतार जानो वही, सुधि आई है
गुरु उपदेशि मन्त्र, कह्यो ‘नीकै राख्यौ’ अन्त्र, जपतहि श्यामजू ने मूरति दिखाई है।
करुणानिधान कही ‘सब भागवत पावैं’ चढि़ दरवाजे सो पुकार्यो धुनि छाई है
सुनि शिष्य लियो यों बहत्तर हि सिद्ध भए नए भक्ति चोज, यह रीति लैकै गाई है॥ (107)
 यह साम्प्रदायिक इतिहास है कि रामानुज के प्राचार्य उस समय के सबसे बड़े आचार्य यामुन मुनि थे, जिनके पांच प्रमुख शिष्य थे। रामानुजाचार्य को उन पांच शिष्यों से भिन्न-भिन्न तत्त्वों का ज्ञान मिला-
1. श्रीमहापूर्णाचार्य – पञ्चसंस्कारयुता श्रीनारायण अष्टाक्षर मन्त्र की वैष्णवी दीक्षा।
2. श्रीकाञ्चीपूर्णाचार्य – परतत्त्वनिर्णय कराया।
3. श्रीगोष्ठीपूर्णाचार्य – श्रीमन्नारायण अष्टाक्षर मन्त्र के अर्थ का उपदेश।
4. श्रीशैलपूर्णाचार्य – श्रीमद्वाल्मीकिरामायण के दिव्यार्थ का तत्त्वज्ञान।
5. श्रीमालाधराचार्य – सहस्रगीति (दिव्यप्रबन्ध-तमिळ भाषा में निबद्ध) के गूढार्थ का प्रवचन।
यह भी तथ्य है कि आचार्य रामानुज से पहले उनके परमगुरु यामुनाचार्य ने शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धांत का खंडन कर जीव की स्वतंत्र सत्ता का प्रतिपादन कर भक्ति मत को स्थापित कर दिया था। परंतु वेद और उपनिषदों पर आधारित ‘श्रीभाष्य’ (ब्रह्मसूत्र भाष्य) लिखकर रामानुज ने ही भक्ति को मोक्ष के साधन के रूप में स्थापित किया। भक्ति की वेदप्रतिपादकता और उसकी मोक्षकारणता को मजबूत शास्त्रीय तर्कों के साथ सिद्ध कर दिया। उनके भक्ति सिद्धांत ने मानव मात्र के लिए ईश्वर प्राप्ति के दरवाजे खोल दिए। उन्होंने भक्ति और शरणागति में जाति भेद, लिंग भेद और वर्ण भेद के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा। यह सब भी मात्र बौद्धिक तर्कों से नहीं बल्कि सुदृढ़ शास्त्रीय आधार पर। उन्होंने शास्त्रीय आधार पर यह घोषणा ही कर दी कि ‘कोई व्यक्ति इसलिए नीच या ऊंच नहीं हो सकता कि उसका जन्म किस कुल या जाति में हुआ है! उसकी श्रेष्ठता तो ईश्वर के बताए मार्ग पर चलकर उसे पा लेने से ही सिद्ध होती है। जिसके लिए सदाचरण बेहद जरूरी है।’ आचार्य रामानुज की सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक स्थापना वह है, जिसमें एकमात्र अद्वैत तत्व स्वीकारते हुए भी जगत को मिथ्या नहीं कहकर उसकी उपेक्षा नहीं की गई। जगत् सत्य है क्योंकि इसका निर्माण उन पञ्च महाभूतों से मिलकर हुआ है, जो श्री-भू-नीलानायक श्रीमन्नारायण के  शरीर हैं। यह बात ‘बृहदारण्यकोपनिषद्’ ने कही है-यस्य जलं शरीरम्। यस्य वायु: शरीरम्। यस्याकाश: शरीरम्। वे इस संसार को सृष्टि अवस्था में स्थूल तथा प्रलयावस्था में सूक्ष्म रूप से सदा धारण करते हैं। वे सगुण ब्रह्म ‘शरीरी’ हैं। फलत: यही बात सिद्ध होती है कि हमारा और उनका अंश-अंशी, शरीर-शरीरी, आधार-आधेय और जीव-ब्रह्म का सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध सार्वकालिक होने के नाते सनातन है। इतना ही नहीं, हमारी आत्मा भी उन भगवान् का शरीर है-यस्यात्मा शरीरम्। अत: वे परमात्मा हमारे धारक हैं। जीव और प्रकृति से सदा ‘विशिष्ट’ होने के नाते वह ‘अद्वैत’ तत्त्व ‘विशिष्ट+अद्वैत=विशिष्टाद्वैत’ तत्त्व कहलाता है। यह सिद्धान्त रामानुज परम्परा का प्राण है, जिसे इस सम्प्रदाय के अनुपम विद्वान् आचार्य श्रीवेदान्तदेशिक ‘न्यायसिद्धाञ्जनम्’ के प्रारम्भ में कहते हैं-एकमेव तत्त्वं तच्च ब्रह्मेति। अर्थात् एक ही तत्त्व है, वह है ब्रह्म। वह ब्रह्म अपने शरीरभूत दो तत्त्वों से सदा विशिष्ट है। अत: वे सर्वेश्वरेश्वर एकमात्र ‘विशिष्टाद्वैत’ तत्त्व हैं।
आचार्य रामानुज ने वैदिक मान्यताओं के आधार पर जो विशिष्टाद्वैत दर्शन स्थापित किया, उसका सिद्धांत है कि भगवान लक्ष्मीनारायण संसार के माता-पिता हैं। उनका प्रेम और कृपा पाना उनकी हरेक संतान का धर्म है। उन्होंने केवल शास्त्रीय बातें लिखी ही नहीं बल्कि स्वयं उनका प्रयोग भी किया। दलित भक्त मारीनेरनंबी की उपासना को अनुकरणीय बताकर उन्हें अपने संप्रदाय में आदर्श के रूप में स्थापित किया। मुस्लिम कन्या तुलुक्क नाच्चियार की लोकोत्तर भक्ति के कारण उनके मंदिर का निर्माण करवाया, जहां आज भी उनकी पूजा होती है। यादवाद्रि के प्रसिद्ध संपत्कुमार मंदिर में दलितों का प्रवेश करवाया।
भक्ति परंपरा में उत्तर और दक्षिण का भेद नासमझी के कारण अभी तक बना हुआ है। इस नासमझी से अनेक झगड़े हुए है। ऐतिहासिक तथ्य यही है कि भक्ति की धारा दक्षिण भारत से शुरू हुई। उसका एक हजार साल का लिखित इतिहास है। तमिलनाडु उसके केंद्र में है। रामानुजाचार्य को उसका संस्थापक आचार्य कहा जाता है। यह निर्विवाद है कि उस भक्तिधारा को चौदहवीं सदी में स्वामी रामानंद उत्तर भारत में ले आए। उन्होंने अपना केंद्र वाराणसी में पंचगंगा घाट के ‘श्रीमठ’ को बनाया। उन्होंने भक्ति की सर्व जन सुलभता को अपूर्व रीति से आगे बढ़ाया। कबीर और रैदास जैसे संत स्वामी रामानंद के भक्ति आंदोलन से इसी उदारता के कारण जुड़ सके। इस तरह रामानुजाचार्य का भक्ति सिद्धांत पूरे भारत में फैला। कबीर की प्रसिद्ध उक्ति रामानुजाचार्य की ओर ही इशारा करती है, जिसमें वे कहते हैं, ‘भक्ति द्राविड़ ऊपजी…।’ इस तरह दक्षिण में रामानुज का चलाया भक्ति मार्ग ही पूरे भारत में फैला। मध्यकाल में इस आंदोलन से ही पीपा, सेन, धन्ना, गोस्वामी तुलसीदास, मीरा और दादू जैसे अनेक भक्त-संत कवि पैदा हुए।
रामानुजाचार्य ने जहां से अपना आंदोलन चलाया, वह तमिलनाडु का श्रीरंगम् क्षेत्र है। यह नाम अपने आपमें भक्ति उत्पन्न करता है। साफ है रामानुज की भक्ति का तात्पर्य भगवान के गुणगान और नामस्मरण से है। विद्वानों का मानना है कि रामानुज संप्रदाय के मठ-मंदिरों का फैलाव उत्तर और दक्षिण दोनों में था। आश्चर्य की बात है कि रामानुजाचार्य के उन विशाल मंदिरों में से अनेक लुप्त हो गए हैं। परंपरा दर्शाते इन मंदिरों में अब लोगों के घर हैं, दुकानें हैं। यदि इन्हें आबाद करना संभव हो सके तो ये सामाजिक समरसता का नया आंदोलन ले सकते हैं।
राजनीति के लोग हर व्यक्तित्व और उसके इतिहास का अपने हिसाब से उपयोग करते हैं। कुछ ही दिन हुए हैं जब मठ-मंदिरों के विरोध की राजनीति करने वाले एम. करुणानिधि ने विधानसभा चुनाव से ठीक पहले रामानुजाचार्य को महान दलित हितकारी बताया था। यह समाचार प्रमुखता से छपा। लेकिन इससे रामानुजाचार्य की स्वीकार्यता पर कोई खास असर नहीं पड़ा। उन्हें परंपरागत रूप से मानने वाले इस रूप में पहले से ही जानते हैं। यही कारण है कि आज पूरे देश में रामानुजाचार्य लोगों के कंठहार और उनके मठ-मंदिर श्रद्धा-वंदना के केंद्र बने हुए हैं। अच्छा रहे कि सरकार रामानुजाचार्य के सहस्राब्दी वर्ष के  बहाने उनकी स्मृति को चिरंतन बनाने के लिए मजबूत काम करे जिससे हमारी आने वाली पीढिय़ां उनके अमर कृतित्व की छाया में रह सके।
– शास्त्री कोसलेन्द्रदास
सहायक आचार्य-दर्शन विभाग
राजस्थान संस्कृत विवि, जयपुर

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