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जयपुर। जयपुर विकास प्रधिकरण में भ्रष्टाचार पर नगरीय विकास मंत्री राजपाल सिंह शेखावत ने बेबाक टिप्पणी की है। वैसे वसुंधरा सरकार में शेखावत पहले मंत्री नहीं है जिन्होंने अपने अधीन विभाग के अफसरों पर काम नहीं करने या विभाग के हालातों को लेकर प्रतिकूल टिप्पणी की है। वरिष्ठ नेता और गृहमंत्री गुलाबचन्द कटारिया कह चुके है कि पुलिस क्राइम रोकने की बजाय जमीनों के बिजनेस पर ध्यान रही है। परिवहन मंत्री युनूस खान भी परिवहन विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर कर चुके है। बकौल उनके परिवहन विभाग में लाइसेंस टेस्ट में कोई फेल नहीं होता। सरकार में इस समय सबसे पावरफुल मंत्री माने जाने वाले चिकित्सा मंत्री राजेंद्र राठौड़ भी अपने महकमे की कार्यशैली से शर्मसार है। वे यह बात सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि मैं चिकित्सा मंत्री हूं लेकिन, मुझे खुद पर शर्म आती है कि डॉक्टर व चिकित्सा स्टाफ कहने के बाद भी मेरी नहीं सुनते। राजस्व राज्य मंत्री अमराराम अपने विभाग के अफसरों को लिख रहे है कि तबादले करने से पहले उनसे पूछा जाए।
विधानसभा के पिछले कुछ सत्रों में प्रश्नकाल के दौरान कई मंत्री अपने अधीन विभाग की ओर से तैयार किए गए टालमटोल जबावों और समय पर विभाग का प्रतिवेदन सदन में नहीं भेजने के कारण फंस गए। शिक्षा मंत्री कालीचरण सराफ, सहकारिता मंत्री अजय सिंह किलक और खाद्य मंत्री हेमसिंह भड़ाना इसके प्रमुख उदाहरण है। सत्ताधारी पार्टी के कई विधायक अफसरों की मनमानी की शिकायत खुले रूप से विधानसभा में कर चुके हैं। दूसरी कई जनप्रतिनिधि संस्थाओं मसलन नगर निगम, पालिका और परिषदों, पंचायतों, जिला परिषदों में भी जनप्रतिनिधियों और अफसरों के बीच खींचतान की शिकायतें आए दिन सामने आती रहती हैं। भाजपा प्रदेश कार्यालय में आयोजित जनसुनवाई में भी इस तरह की शिकायतें बहुत मिल रही हैं।
नगरीय विकास मंत्री राजपाल सिंह शेखावत ने हाल में पृथ्वीराज नगर में नियमन में भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर टिप्पणी की है। इससे पहले रिसर्जेंट राजस्थान के दौरान कराए काम और प्रदेश में सड़कों पर एलईडी लाइटें लगाने के प्रोजेक्ट को लेकर भी वे अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके है। बावजूद इसके रिसर्जेंट राजस्थान में अफसरों ने मनमाने ढंग से काम कराए। अच्छी भली सड़क पर नई सड़क बना दी। लाखों रूपए के पौधें सौंदर्यन के नाम पर खरीद लिए गए। एलईडी लाइटें भी उनके सवालों को नजरंदाज कर लगाई जा रही है। उन्होंने बिना सड़क की चौड़ाई और खंभों की ऊंचाई देखे एलईडी लाइटें लगाने पर आपत्ति जताई है। कम वॉट की लाइटों से सड़कों पर अंधेरा नजर आ रहा है। जनता की राय और सर्वे बिना शहर के प्रमुख सर्किलों को छोटा करने और मंदिरों को स्थानांतरित करने के एकतरफा फैसलों को लेकर राजपाल ने जेडीसी और नगरीय विकास के अफसरों को आडे हाथ लेते हुए बयानबाजी की थी।
गृहमंत्री गुलाबचन्द कटारिया कटारिया पुलिस महकमें की कार्यप्रणाली को लेकर पूरी तरह संतुष्ट नहीं है। वे कई बैठकों में अफसरों को कह चुके हैं कि पुलिस क्राइम रोकने की बजाय जमीनों के धंधे में लगी है। खासकर जयपुर कमिश्नरेट को तो भू-माफियाओं का मददगार तक बता दिया था।
उनकी यह पीड़ा सहीं भी है। पुलिस थानों में फरियादी की सुनवाई नहीं होती। पुलिस वाले जमीन खाली करवाने, कब्जे दिलवाने जैसे काम कर रहे है। मिलीभगत के चलते भारी पुलिस सुरक्षा में से भी आनन्दपाल जैसे हार्डकोर्ड अपराधी फरार हो जाते है। इस मामले में सरकार के मंत्रियों की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे है । कुख्यात आनन्दपाल प्रकरण में पुलिस की नाकामी से गृहमंत्री कटारिया खासे परेशान है। इस बारे में पिछले दिनों मीडिय़ा ने सवाल किया तो भड़क गए और वे बोले, जवाब देते-देते मैं भी आनन्दपाल हो गया हूं। पुलिस अभिरक्षा से आनन्दपाल को भगाने में पुलिसकर्मियों ने खासी भूमिका निभाई थी। आनन्दपाल को फरार हुए करीब छह महीने हो चुके है लेकिन, पुलिस उसे अभी तक नहीं पकड़ पाई है। ठगी, लूटपाट, हत्या, वाहन चोरी, महिलाओं के साथ अत्याचार के मामले बढ़ रहे है। मलाईदार पदों और कमाई वाले थानों में नियुक्तियों का भ्रष्टाचार किसी से छिपा नहीं है।आरटीओ से बिना वाहन निरीक्षण के फिटनेस प्रमाण-पत्र और बिना टायल के लाइसेंस मिलना कोई बड़ी बात नहीं है। दलालों का बोलबाला है। ऐसे हालातों के चलते परिवहन मंत्री युनूस खान को बोलना पड़ा कि आरटीओ में लाइसेंस टेस्ट में कोई फेल नहीं होता। उनका यह बयान आरटीओ में व्याप्त भ्रष्टाचार की पोल खोलने के लिए काफी है। सिस्टम को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए किए जा रहे कम्प्युटराजेशन का भी असर नजर नहीं आ रहा। कई अधिकारी एवं कर्मचारी सालों से एक ही जगह जमे हुए है। पहुंच के चलते उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। लाइसेंस और दूसरे महत्वपूर्ण काम ठेकेदारों के आदमी दलाल बनकर करवा रहे है। चिकित्सा मंत्री चिकित्सा मंत्री राजेन्द्र राठौड़ की तो उनके महकमे के डॉक्टर नहीं सुनते। सार्वजनिक तौर पर इस पीड़ा को वे जाहिर कर चुके है। उनका यह बयान चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग में व्याप्त अव्यवस्थाओं को उजागर करता है। जब डॉक्टर मंत्री की नहीं सुनते है तो आम जनता की क्या सुनेगें? इसी का नतीजा है कि आए दिन अस्पतालों में मरीज के परिजनों और चिकित्साकर्मियों के बीच मारपीट की घटनाएं सामने आ रही है। राजस्व राज्य मंत्री अमराराम की राजस्व विभाग में तबादलों में नहीं चल रही है। अफसरों को पत्र भेजकर साफ कहा कि जब भी तबादला करें, उनकी भी राय ले।
बदल रहा है नजरिया
इन तमाम मामलों को देखकर साफ है कि जनप्रतिनिधियों के प्रति ब्यूरोक्रेसी का नजरिया बदल रहा हैं। उन्होंने जनप्रतिनिधियों को तबज्जो देना कम कर दिया है। नतीजा दोनों के बीच खाई बढ़ रही है और लगातार एक के बाद एक इस तरह के मामले आ रहे है। ब्यूरोक्रेट्स में अब ये सोच भी डवलप हो रही है कि जनप्रतिनिधि तो पांच साल के लिए चुनकर आते है। अगली बार का क्या पता जीतेंगे भी नहीं? चुनावों में जनता कई दिग्गज नेताओं को सबक सिखा देती है। जनप्रतिनिधियों का शिक्षा स्तर अपेक्षा कम होने से ब्यूरोक्रेट्स उन्हें ज्यादा तवज्जों नहीं देते हैं। किसी मामले या विवाद के कारण हटाए गए अफसर को ज्यादा दिन तक एपीओ या निलंबित भी नहीं रखा जा सकता। तबादलों का डर खत्म हो गया है। नौकरी तो करनी है यहां करें या वहां करें की भावना पनप रही है। एसीआर में प्रतिकूल टिप्पणी और प्रमोशन रोकने जैसी कड़ी कार्रवाई अब अपेक्षाकृत कम होती है।

चयन में राजनीति
सरकार बदलती है, अफसर बदलते है। प्राय: जिस पार्टी की सरकार बनती है, उसके मुखिया अपनी पार्टी की विचारधारा से मेल खाने वाले अफसरों को महत्वपूर्ण पदों पर लगाते है। सत्ता बदलने के साथ ही कई अफसर दिल्ली प्रतिनियुक्ति पर चले जाते है और दिल्ली में बैठे अफसर राजस्थान आ जाते है। लंबे समय से कम महत्वपूर्ण पदों पर बैठें अफसरों की सरकार में पूछ बढ़ जाती है। कहा तो जाता है कि सरकारें बदले की भावना से तबादले नहीं करती लेकिन, ये सत्य है कि सरकार बदलने के साथ ही तबादलों की राजनीति शुरू हो जाती है। यहां तक वरिष्ठता को ताक में रखकर सरकार राज्य के प्रशासनिक मुखिया को बदल देती है।
वरिष्ठ आईएएस उमराव सालोदिया इसके उदाहरण है। जिन्होंने वरिष्ठता के आधार पर मुख्य सचिव का पद नहीं दिए जाने पर खुलकर भेदभाव के आरोप लगाए। सालोदिया का आरोप है कि दलित होने के आधार पर उनके साथ भेदभाव किया गया है और उनसे जूनियर अफसर सी.एस.राजन को मुख्य सचिव पद बना दिया गया और सेवानिवृत्ति से पहले तीन महीने का एक्सटेंशन और कर दिया। जुलाई में सेवानिवृत्त हो रहे सालोदिया ने नाराज होकर वीआरएस की अर्जी लगाई और भेदभाव का आरोप लगाते हुए मुस्लिम धर्म ग्रहण कर लिया। इससे पहले भी मुख्य सचिव पद नियुक्ति को लेकर कई बार विवाद हो चुके हैं। हाल में वरिष्ठ आईएएस ओपी मीणा का तबादला भी विवादस्पद है। मीणा को सरकार ने अध्यक्ष एवं आयुक्त हाउसिंग बोर्ड के पद पर लगाया है। मीणा ने अध्यक्ष का पदभार सम्भाल लिया लेकिन, आयुक्त का पद वरिष्ठता के विवाद के चलते नहीं सम्भाला। अफसरों के छांट-छांटकर तबादले होते है। जिन अफसरों को पूर्ववर्ती सरकार योग्य बता रही होती है वह नाकाबिल घोषित कर दिए जाते है और जिन अफसरों को पिछली सरकार ने नाकाबिल बनाया था वे खासमखास हो जाते है। उनका वनवास खत्म हो जाता है और मलाईदार एवं महत्वपूर्ण पदों के लिए जोड़तोड़ लगाते नजर आ जाएंगे। इस राजनीति ने भी अफसरों का नजरिया बदला है।
आरटीआई का डर
सूचना के अधिकार के लागू होने के बाद कई बड़े घोटाले उजागर हुए है। इस कानून को लेकर लोगों में जागरूकता आई है। ब्यूरोक्रेट्स का एक तर्क यह भी रहता है कि जनप्रतिनिधि उन पर ऐसे काम के लिए दबाव बनाते है जो नियम-कायदों में हो नहीं सकता। किसी भी गलत निर्णय के लिए अफसर या कर्मचारी फंस सकते है। ऐसी सोच के चलते काम अटकाने की प्रवृत्ति नौकरशाही में बढ़ रही है। काम नहीं होने से जनप्रतिनिधि अफसरों की खिलाफत कर रहे है।

भ्रष्टाचार का बोलबाला
शहरी विकास विभाग, हाउसिंग बोर्ड, रीको, उद्योग, जेडीए, नगर निगम, परिवहन विभाग जैसे विभागों में भ्रष्टाचार जमकर होता है। इन विभागों में महत्वपूर्ण पदों की तरह पुलिस और वन विभाग में भी मलाईदार पदों पर नियुक्ति के लिए अफसर और कर्मचारी लगे रहते है। कई अफसर एवं कर्मचारी तो ऐसे है जो लंबे अरसे से एक ही पद पर जमे हुए है। यहां तक कि पदोन्नति के लाभ भी वे कमाई के चलते छोड़ देते है। जनता में ऐसा संदेश है कि इन विभागों में बिना दिए काम नहीं होता है। और हकीकत भी है। फाइलों के ढेर लगे है। बड़ी-बड़ी घोषणाएं तो हो चुकी है लेकिन, काम कहीं नजर नहीं आता। इस भ्रष्टाचार को खुद मंत्री स्वीकार कर रहे है। लेकिन, वे भी इसे खत्म करने में असक्षम साबित होते नजर आ रहे है।

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