jaipur। जहां एक ओर देश में राष्ट्रवाद को लेकर बहस छिड़ी है, वहीं महाराणा प्रताप के शौर्य और संघर्ष का इतिहास अपने में समेटे मेवाड़-वागड़ की होलिका दहन की परम्पराएं यहां के गौरव का परिचय देती हैं। ‘मेरा रंग दे बसंती चोला…जैसे देशप्रेम से ओतप्रोत गाने की पंक्ति मेवाड़-वागड़ की होलिका दहन परम्परा में घुली-मिली सी नजर आती है। होली के दहकते अंगारों के बीच होली के डांडे को तलवार से काटकर गिराने की परम्परा और सेमल के कांटेदार तने पर चढ़कर ऊपर लटकी पोटली को ले आने का लक्ष्य कोई बच्चों का खेल नहीं।उदयपुर। जहां एक ओर देश में राष्ट्रवाद को लेकर बहस छिड़ी है, वहीं महाराणा प्रताप के शौर्य और संघर्ष का इतिहास अपने में समेटे मेवाड़-वागड़ की होलिका दहन की परम्पराएं यहां के गौरव का परिचय देती हैं।

‘मेरा रंग दे बसंती चोला…जैसे देशप्रेम से ओतप्रोत गाने की पंक्ति मेवाड़-वागड़ की होलिका दहन परम्परा में घुली-मिली सी नजर आती है। होली के दहकते अंगारों के बीच होली के डांडे को तलवार से काटकर गिराने की परम्परा और सेमल के कांटेदार तने पर चढ़कर ऊपर लटकी पोटली को ले आने का लक्ष्य कोई बच्चों का खेल नहीं।वैसे भी मेवाड़-वागड़ मुगल साम्राज्य से लेकर अब तक अपनी शौर्य गाथाओं को लेकर पूरे विश्व में अलग स्थान रखता है। खासकर यहां का आदिवासी समाज जिसने वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के साथ कंधे से कंधा मिलाकर मुगलों से लोहा लिया, उन कठिन परिस्थितियों को सहन करने की क्षमता का आंकलन उनकी आज तक जीवित परम्पराओं में परिलक्षित होता है।

उदयपुर जिले के खेरवाड़ा उपखण्ड का गांव है बलीचा। यहां होलिका दहन पूर्णिमा के अगले दिन यानी धुलण्डी पर होता है। सुबह से ही इस दहन के लिए आसपास ही नहीं, सीमावर्ती गुजरात के गांवों से भी आदिवासी समाज के लोग एकत्र होना शुरु हो जाते हैं। जब युवाओं की टोली तलवारों और बंदूकों को लेकर गांवों की गलियों से गुजरती है तो ऐसा लगता है कि कोई सेना की टुकड़ी दुश्मन से लोहा लेने जा रही हो। यहां होलिका दहन स्थानीय लोकदेवी के स्थानक के समीप होता है। टोलियां फ ागुन के गीत गाते हुए पहाडिय़ों से उतरकर स्थानक पहुंचती हैं। समाज के मुखिया, आसपास के मोतबीर, महिलाएं-पुरुष, बच्चे सभी एकत्र होते हैं। फि र शुरु होता है ढोल की थाप पर गैर नृत्य। गुजरात के गरबा नृत्य के समकक्ष लेकिन डांडियों के बजाय तलवारों से किया जाने वाला नृत्य होता है गैर नृत्य। कोई-कोई युवा दोनों हाथ में तलवार लिए होते हैं तो कोई एक हाथ में तलवार और एक में बंदूक। मजाल है कि गोल घेरा बनाकर नाचते समय किसी को चोट भी लग जाए। हां, जो चूका, उसे चोट लग सकती है।

दोपहर दो बजे करीब शुरू होता है शौर्य का खेल। यह एक तरह की प्रतियोगिता है। दहकती होली के बीच खड़े डांडे को तलवार से काटना यहां की परम्परा है। इसके लिए युवा प्रयास करना शुरु कर देते हैं। ऐसा नहीं है कि हर कोई यह प्रयास कर ले, क्योंकि यहां ‘माइनस मार्किंगÓ भी है। यदि जीते तो पुरस्कार मिलता है और गलती की तो मंदिर में सलाखों के पीछे बंद कर दिया जाता है। हालांकि, सजा लम्बी नहीं होती, लेकिन समाज के मुखियाओं द्वारा तय जुर्माना और भविष्य में गलती नहीं करने की जमानत पर उन्हें रिहाई मिलती है। जाहिर है इस कठोर परम्परा के निर्वहन में कभी कोई अप्रिय वाकिया न हो जाए, इसलिए पुलिस का बंदोबस्त भी रहता है।इसी के समानांतर कुछ आदिवासी क्षेत्रों में ‘नेजा उतारनेÓ की परम्परा है। होली पर कांटेदार सेमल के डांडे के ऊपर पोटली बांधी जाती है, उसमें भाले का फ ल रखते हैं। गैर नृत्य के दौरान आदिवासी युवा लपक कर डांडे पर चढ़ते हैं और उस पोटली को उतार लाते हैं। पोटली में रखे भाले के फ ल को ‘नेजाÓ कहा जाता है। इसके बाद होली का मंगल किया जाता है।-जंगल का हितैषी है आदिवासी समाज-शहरों में सेमल के वृक्षों की बड़ी मांग के चलते सेमल नष्ट होने के कगार पर है, वहीं आदिवासी समाज होली में लकडिय़ां कम और गोबर के छाणे ज्यादा काम में लेता है। इससे जंगल की लकड़ी बर्बाद नहीं होती। मेवाड़ में सेमल वृक्ष की उपलब्धता कम होने और उनका संतुलन बनाए रखने के लिए पिछले कुछ सालों से ‘लोहे की होलीÓ काम में लेने की जागरूकता की जा रही है। इसमें वन विभाग भी सहयोग कर रहा है। होली के डांडे में सेमल के बजाय लोहे का ढांचा काम में लिया जाता है जिसका हर साल उपयोग किया जा सकता है। कुछ समाज-संस्थाओं ने इस परम्परा को अपनाया भी है।
– मेनार भी प्रसिद्ध है गैर नृत्य के लिए-उदयपुर जिले का मेनार गांव भी गैर नृत्य के लिए प्रसिद्ध है। यहां भी रात भर तलवारों से गैर नृत्य किया जाता है। विशेष बात यह है कि गांव के दामाद इस विशेष अवसर पर आमंत्रित किए जाते हैं। वे लोग तलवारबाजी का प्रदर्शन भी करते हैं। पूरी रात गांव के चैक में गैर नृत्य चलता है।

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