जयपुर। जमवारामगढ़ से करीब 20 किमी. दूर स्थित सरजोली गांव के आंचल में पानी के लिए बलिदान की एक अनूठी कथा सिमटी हुई है। अरावली के पहाड़ों की गोद में बहुत ही सुरम्य वन में स्थित एक प्राचीन बावड़ी ‘ चूली बावड़ी’ के नाम से जानी जाती है। चूली सरजोली के मुखिया जो मीणा जाति के थे उनकी सबसे बड़ी संतान थी। मुखिया ने सरजोली में पेयजल संकट के निदान के लिए पहाड़ों के बीच एक सुंदर स्थान चुना और वहां एक भव्य बावड़ी बनाई। वहीं पर नाथ संप्रदाय के एक साधु तपस्या करते थे और उनका धूणा जागृत था।
यह बात करीब एक हजार वर्ष पुरानी है। बावड़ी तो बन गई लेकिन उसमें एक बूंद पानी नहीं आया। सरजोली के बांशिदे इससे बहुत निराश हुए क्योंकि बावड़ी से उनकी आस बंधी थी। इस पर साधु ने कहा कि गांव के मुखिया की जो भी सबसे बड़ी संतान है वह बावड़ी में जीवित समाधि ले तभी पानी आएगा। चूली देवी सबसे बड़ी संतान थी जब उसे यह बात मालूम चली तो वह सहर्ष बलिदान के लिए आगे आ गई।
चूली देवी के प्राणोत्सर्ग पर साधु ने उसे वरदान दिया कि इस बावड़ी में हमेशा पानी रहेगा और यह बावड़ी चूली के नाम से जानी जाएगी। उन साधु की समाधि भी बावड़ी के समीप है। चूली बावड़ी कोई सामान्य बावड़ी नहीं है यहां घने जंगल में अनेक साधु- संतों की तपस्या की आंच आज भी महसूस की जाती है। बावड़ी परिसर में ही कई साधुओं की समाधियां है। यहां चूलीदेवी की प्रतिमा भी स्थापित की गई है। ग्रामीण उन्हें खेत-खलिहान, परिवार की रक्षा करने वाली देवी के रूप में भी पूजते हैं।
यह स्थान बहुत ही सुरम्य है। पहाड़ों के बीच बारिश में यहां झरने बहकर निकलते हैं। इस जगह गोठों का तांता लगा रहता है और पूरे साल भक्ति- भाव की धारा बहती है। लेकिन यह सुरम्य स्थान अभी तक सरकारी दृष्टि से अनछूआ है। चूलीदेवी की कथा भी अभी तक सिर्फ लोकसंस्कृति का ही हिस्सा है। इस स्थल को स्मारक के रूप में विकसित करना चाहिए और यह प्रेरक बलिदान कहीं अंकित होना चाहिए।

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