राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का पूरा जीवन प्रेरणास्पद है। उन्होंने दूसरों को उपदेश देने से पहले खुद के जीवन में उसका प्रयोग किया और यही कारण है कि उनकी आत्मकथा सत्य के प्रयोग बहुत कुछ जानने और समझने का अवसर प्रदान करती है। आइए जानें ब्रह्मचर्य जैसे कठिन नियम के पालन के बारे में क्या अनुभव रहे मोहनदास कर्मचंद गांधी के:

– संयम पालन की कठिनाइयों का पार न था।
अलग खाटें रखीं, रात को थक कर ही सोने की कोशिश की। इस सारे प्रयत्न का अधिक परिणाम मुझे तुरंत ही दिखाई न पडा। पर आज भूतकाल पर दृष्टि डालता हूं तो देखता हूं कि इन सारे प्रयत्नों ने मुझे अंतिम निश्चय करने पर बल दिया।
– ब्रह्मचर्य व्रत लेने से पहले
व्रत बंधने का नहीं बल्कि मुक्ति का द्वार है। आज तक अपने प्रयत्नों में जितनी चाहिए, उतनी सफ लता न पाने का कारण मेरा कृतनिश्चय न होना था। मुझे अपनी शक्ति पर भरोसा न था। यह कहना कि मैं प्रयत्न तो ठीक समझता हूं पर व्रत में नहीं बंधना चाहता, यह वचन निर्बलता की निशानी है। इसमें सूक्ष्म रूप से भोग वासना छिपी है। त्याज्य वस्तु के सर्वथ त्याग में हानि कैसे हो सकती है? जो सांप मुझे डसने वाला है, मैं उसका निश्चयपूर्वक त्याग करता हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि प्रयत्न मात्र करने का फ ल मौत हो सकता है।

gandhi1-1906 में ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के बाद
यह व्रत लेते समय तो मुझे बहुत कठिन लगा। मेरी शक्ति अल्प थी। विकारों को कैसे दबा पाउंगा? अपनी पत्नी के साथ सविकार सम्बन्ध का त्याग कुछ अनोखी सी बात लगती थी। मेरी नीयत शुद्ध थी। शक्ति भगवान देगा, यह भरोसा रख कर मैं कूद पडा। आज बीस बरस बाद उस व्रत का स्मरण कर मुझे सानंद आश्चर्य होता है। संयम पालन की वृत्ति तो 1901 से ही प्रबल थी और मै उसे पाल भी रहा था पर जो स्वतंत्रता और आनंद मै अब पालने लगा, उसकी 1906 से पहले प्राप्ति की मुझे याद नही। कारण यह कि उस समय मेैं वासनाबद्ध था। किसी भी क्षण उसके वश में हो सकता था। अब वासना मुझ पर सवारी गांठने में असमर्थ हो गई।

-आसान नहीं था व्रत का पालन
यद्यपि मैं इस व्रत में इस तरह रस लूट रहा था। पर कोई यह न समझे कि कठिनाई का अनुभव नहीं करता था। आज छप्पन वर्ष हो चुके है, फि र भी कठिनाई का अनुभव तो होता ही है। यह असिधारा व्रत है। इस व्रत में सदा जाग्रत रहने की आवश्यकता दिखाई देती है।

– जीभ पर जीत से ब्रह्मचर्य का पालन
मेरा अनुभव है कि जीभ को जीत लेने पर ब्रह्मचर्य का पालन अतिशय सरल है। व्रत के बाद मेरे खुराक के प्रयोग ब्रह्मचर्य की दृष्टि से भी होने लगे। मैंने अनुभव किया कि खुराक थोडी, सादी, बिना मिर्च मसाले की और कुदरती हालत में होनी चाहिए। ब्रह्मचर्य का भोजन वन के पक्क फ ल है। यह अपने ऊपर तो छह वर्ष तक प्रयोग कर मैं देख चुका हूं। फ लाहार काल में ब्रह्चर्य सहज था, दुग्धाहार में वह कष्ट साध्य हो गया। ब्रह्मचारी के लिए दूध का आहार विध्नकारक है लेकिन दूध के समान स्नायुपोषक और उतनी आसानी से पहने वाला फ लाहार अभी तक मुझे दूसरा नहीं मिला। न कोई वैद्य, हकीम या डॉक्टर वैसे फ ल या अन्न बता सका। अत: दूध को विकारोत्पादक वस्तु मानते हुए भी मैं उसके त्याग की सलाह फिलहाल किसी को नहीं दे सकता।

-उपवास है सहायक, लेकिन…
उपवास से इंद्रिय दमन में बडी मदद मिलती है। इस विषय में मुझे तनिक भी शंका नहीं है। उपवास करते हुए भी जो असफ ल होते हैं, उसका कारण यह है कि उपवास ही सब कर देगा, यह मान कर वे स्थूल उपवास मात्र करते हैं और मन में छप्पन प्रकार के भोगों का स्वाद लेते रहते हैं, फि र शिकायत करते हैं कि न स्वादेन्द्रिय पर काबू मिला न जननेन्द्रिय पर। मन को विषय भोगों के प्रति विराग होना चाहिए ब्रह्मचर्य के पालन में उपवास अनिवार्य अंग है।

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