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Supreme Court to hear today in verdict right to privacy

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि केन्द्र या राज्य सरकार बार-बार अध्यादेश जारी नहीं कर सकती। बार-बार अध्यादेश जारी करना संविधान के साथ धोखाधड़ी है। साथ ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संवैधानिक प्रावधानों का मखौल है। संविधान पीठ का फैसला का यह फैसला केन्द्र की मोदी सरकार को मुश्किल में डाल सकता है। शत्रु सम्पत्ति अध्यादेश सहित कई कानून बार-बार अध्यादेश के जरिए आगे बढ़ाए गए हैं। सात में से पांच न्यायाधीशों ने अध्यादेश को विधायिका के समक्ष पेश करने के कानून को अनिवार्य बताया, जबकि चीफ जस्टिस तीरथ सिंह ठाकुर और जस्टिस मदन लोकुर ने इससे असहमति व्यक्त की। जस्टिस शरद अरविंद बोबडे, आदर्श कुमार गोयल, उदय उमेश ललित, धनंजय चंद्रचूड और एल नागेर राव ने बहुमत से फैसाला सुनाया। संविधान पीठ ने बहुमत से किए गए फैसले में कहा कि अनुच्छेद 213 और 123 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल को प्रदत्त अधिकार विधायिका की शक्ल के रूप में उन्हें दिए गए हैं। संसद या विधानसभा के सत्र में न रहने के कारण यह अधिकार दिए गए हैं। आपात स्थिति के लिए यह अधिकार प्रदान किए गए हैं, लेकिन अध्यादेश को संसद या विधान मंडल में पेश करना अनिवार्य है। यदि संसद के सत्र में इसे पेश नहीं किया गया तो सत्र शुरू होने के छह सप्ताह बाद इसका स्वत: अंत हो जाएगा। अध्यादेश पहले भी निरस्त हो सकता है, यदि इसे संसद में पेश किया जाए और सदन इसे अस्वीकार कर दे। बिहार के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया है। 138 पृष्ठीय इस फैसले में संविधान पीठ ने कहा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राष्ट्रपति और राज्यपाल कानून के समानांतर नहीं हो सकते। वह एक पृथक विधायिका का रूप अख्तियार नहीं कर सकते। लोकतंत्र में विधायिका का सर्वोच्च स्थान है। अध्यादेश पर विधायिका का नियंत्रण जरूरी है। राष्ट्रपति और राज्यपाल मंत्रीपरिषद की सलाह पर काम करते हैं। कैबिनेट या मंत्रिपरिषद की सामूहिक जिम्मेदारी होती है। विधायिका ही यह तय करने में सक्षम है कि अध्यादेश जरूरी है या नहीं। उसे संशोधन के साथ पारित करने या न करने का अधिकार सिर्फ संसद या विधानसभा को है। विधायिका से बचकर अध्यादेश को बार-बार लागू करना आर्डिनेंस को अवैध बना देता है।

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